सौराष्ट्र में गिरिनगर से निकलती सुवर्नरेखा (सुवर्णसुकता) नदी पर निर्मित सुदर्शन झील को भारत के आरम्भिक मानव-निर्मित झीलों में से एक माना जाता है, जिसके निर्माण-ध्वंस और पुनर्निर्माण की लोमहर्षक गाथा में लोककल्याण के लिये शासकों और तत्कालीन अभियंताओं का गहन संघर्ष परिलक्षित होता है। सुदर्शन झील का निर्माण चंद्रगुप्त मौर्य के शासन समय में उनके द्वारा नियुक्त सौराष्ट्र के  प्रान्तीय शासक पुष्यगुप्त ने कराया था। कालांतर में सम्राट अशोक के राज्यपाल तुशाष्प ने इस बांध तथा उससे जनित जलाशय में से सिंचन हेतु नहरें निकाली। अब चंद्रगुप्त मौर्य के समय का उल्लेख है तो महाविद्वान चाणक्य की चर्चा के बिना बात अधूरी रह जायेगी। यह सुख़द है कि चाणक्य ने अर्थशास्त्र में बांध के निर्माण, सिंचन व्यवस्था और कृषि पर बहुत विस्तार से लिखा है। उन्होंने अर्थशास्त्र में जल संग्रहण के लिए सेतु, नहर के लिए परिवह, जलाशय के लिए तातक, नदी जल के लिए नद्ययतना, नदी पर बनने वाले बांध के लिए नदिनीबंधयतन, इस बांध से निकली नहर के लिए निबंधयतन शब्दों का प्रयोग किया है। कौटिल्य ने लिखा है- आधारपरिवाहकेद्रोपभोग्या जिसका अर्थ है “जलागार की नहरों से सिंचित खेतों का उपयोग।” ये उदाहरण संक्षेप में इसलिये जिससे कि हम आश्वस्त हो सकें कि मौर्य शासन समय मे भी बांध निर्माण या कि नहर बना कर सिंचन करने के तरीकों की जानकारी थी।

 

मौर्यकाल मे निर्मित जिस सुदर्शन बांध के ध्वंस की हम बात करने जा रहे है यह घटना अतिवर्षा के कारण शक शासक रुद्रदामन के कालखण्ड मे हुई थी। रुद्रदामन के विषय में विस्तृत जानकारी उनके शक संवत 72 अर्थात वर्ष 150 ई. के जूनागढ अभिलेख से प्राप्त होती है। जूनागढ़ अभिलेख से ही हमें जानकारी मिलती है कि यह कोई साधारण तूफान नहीं था, वर्णन है कि जल से भरे मेघों ने सम्पूर्ण धरती को आच्छादित कर दिया। इतनी घनघोर वर्षा हुई कि सारी धरती ही मानो महासागर में परिवर्तित हो गई हो। इस समय उरजयत अथवा गिरनार पर्वत से निकलने वाली सुवर्नासिकता, प्लासीनी तथा अन्य स्थानीय नदियों में विकराल बाढ़ आ गयी। प्रलंयकारी तूफान जिसने पर्वतों को, वृक्षों को, कंगूरों को, किनारों को, दो मंजिलें भवनों को, प्रवेश द्वारों को, ऊंचाई पर बने प्रासादों को और सभी आश्रयों को ध्वस्त कर दिया, इससे लग रहा था मानो सृष्टि का अंत होने जा रहा है। शिलाएं, वृक्ष, झाड़ी और लताएं चारों ओर अस्त व्यस्त हो गई थीं, इस तूफान ने 420 क्यूबिट लम्बे और चौड़े तथा 75 क्यूबिट गहरे हिस्से को उखाड़ दिया, जिससे जलाशय का सम्पूर्ण जल बाहर आ गया और जब तूफान थमा तब झील बालूका राशि वाली मरूभूमि के सद्श्य दिखलाई पड़ने लगी। यहाँ ध्यान देने योग्य बात है कि यदि हम भारत में बांध निर्माण का इतिहास देखें तो हमें चोल राजा करिकाल का संदर्भ भी मिलता है तो मालवा के राजा भोज का भी तथापि किसी बांध के टूटने और उससे होने वाली तबाही का संदर्भ रुद्रदामन के कालखण्ड का ही प्राप्त होता है।

 

विनाश के आयाम इतने भयंकर थे कि रुद्रदामन के सलाहकारों और प्रधान अधिकारियों ने यह सोच लिया था कि अब सुदर्शन झील का पुनर्निर्माण संभव नहीं है। रुद्रदामन इस विकट घड़ी में उठ खड़े हुए और उन्होंने जलाशय के पुनर्निर्माण का आदेश दिया। पुनर्निर्माण कार्य अनर्ता और सुराष्ट्र के प्रान्तीय प्रशासक अमात्य सुविशाखा की देखरेख में शुरू हुआ। सुविशाखा का आज भी एक योग्य अधिकारी के रूप में दृष्टांत दिया जाता है। रुद्रदामन के आदेश पर निर्मित की जा रही झील की लम्बाई व चौड़ाई को, सभी ओर से, अत्यंत अल्प समय में, पहले से तीन गुणा अधिक मजबूत बनाया गया। सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि राज्य द्वारा इस बांध के  पुनर्निर्माण के लिए अपनी प्रजा पर किसी तरह का कोई कर नहीं थोपा गया था। अभिलेख स्पष्ट करता है कि महाक्षत्रप रुद्रदामन ने यह कार्य जनहित में एवं धर्म के पालनार्थ करवाया था। कौटिल्य का हमने उदाहरण लिया था जिन्होंने तटबंध के लिए सेतु शब्द का प्रयोग किया है। सेतु और सेतुबंधन शब्द कई संस्कृत ग्रंथों में भी मिलते हैं। रुद्रदमन के शिलालेख में इन शब्दों के अतिरिक्त जो दूसरे शब्द प्रयोग किए गए हैं वे हैं- नहर के लिए ‘प्रणाली’, कचरा बंधारा के लिए ‘परिवह’, झील से गाद की सफाई के लिए ‘मिधविधान’। इन सभी शब्दों की परिभाषायें हमें तत्कालीन बांध निर्माण के तरीकों से परिचित कराती हैं। सुदर्शन झील के निर्माण के लिये आरम्भ में तटबंधों को मिट्टी से बनाया गया जिनके दोनों तरफ पत्थर लगाए गए थे।

 

कहते हैं कि समय अपने आपको दोहराता है। अब समय था गुप्त शासक स्कंदगुप्त विक्रमादित्य स्कन्दगुप्त (455-467 ई.) का। एकबार पुन:, वर्ष 455 ई. में अर्त्याधिक वर्षा होने के कारण सुदर्शन झील के तटबंध नष्ट हो गये। यह समय था जब स्कंदगुप्त ने सिंहासन सम्भाला ही था। सम्राट स्कंदगुप्त ने सौराष्ट्र के प्रान्तकाल पर्णदत्त के पुत्र चक्रपालिन को इस झील के पुनर्निर्माण का आदेश दिया। चक्रपालिन की देखरेख में सुदर्शन झील के तटबंधों को सुधारा गया। कार्य के पूर्ण होने के बाद सम्राट ने पिता की स्मृति में झील के किनारे भव्य विष्णुमंदिर का निर्माण करवाया। अपने तटबंधों के नष्ट हो जाने के कारण सुदर्शन झील सम्भवत: आठवीं या नौंवी ई. में प्रयोग के लिये उपयुक्त नहीं रही थी तथापि इस जलाशय का जीवन लगभग एक हजार वर्षो का रहा है। यह विवरण हमें इतिहास ही नहीं प्राचीन पर्यावरण और अभियांत्रिकी जैसे संदर्भों से भी परिचित कराता है।

 

राजीव रंजन प्रसाद

उप महाप्रबंधक (पर्यावरण)