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पर्यावरण वार्ता (अंक 6 )

चित्र : गैलेपागोस द्वीप समूह

 

 

 

जैव विविधता संरक्षण हमेशा से एनएचपीसी की सभी परियोजनाओं की प्राथमिकता रहा है। जैव विविधता के नष्ट होने में मानव के क्रियाकलापों का क्या योगदान है  तथा इसके दुष्प्रभावों को वैश्विक सन्दर्भों में भी समझने की आवश्यकता है । इसे गैलेपागोस द्वीप समूह के उदहारण से समझते हैं जो कि इक्वाडोर का एक भाग है। यह 13 प्रमुख ज्वालामुखी द्वीपों, 6 छोटे द्वीपों और 107 चट्टानों और द्वीपिकाओं से मिलकर बना है। इसका सबसे पहला द्वीप 50 लाख से 1 करोड़ वर्ष पहले निर्मित हुआ था। सबसे युवा द्वीप, ईसाबेला और फर्नेन्डिना, अभी भी निर्माण के दौर में हैं और इनमें आखिरी ज्वालामुखी उद्गार 2005 में हुआ था। ये द्वीप अपनी मूल प्रजातियों की बहुत बड़ी संख्या के लिए प्रसिद्ध हैं। चार्ल्स डार्विन ने अपने अध्ययन यहीं पर किए और प्राकृतिक चयन द्वारा विकासवाद का सिद्धांत प्रतिपादित किया। यह एक लोकप्रिय पर्यटन स्थल है। 2005 में लगभग 1,26,000 लोगों ने पर्यटक के रूप में गैलेपागोस द्वीपसमूह का भ्रमण किया। इससे न सिर्फ द्वीपों पर मौजूद साधनों को खामियाजा भुगतना पड़ा बल्कि पर्यटकों की बहुत बड़ी संख्या नें यहाँ के वन्यजीवन को भी प्रभावित किया है।

 

इसके साथ ही यह भी देखे जाने योग्य तथ्य है कि विशिष्ट प्रजाति की समृद्ध विविधता को दूसरी प्रजातियों से प्राकृतिक अवरोध जैसे महासागर आदि सुरक्षा प्रदान करते हैं। उदाहरण के लिए यदि आस्ट्रेलिया एक द्वीप नहीं होता तो आस्ट्रेलिया के विशिष्ट प्राणि जीवन एवं वनस्पति जीवन का वास्तव में आज तक बचा रह पाना मुश्किल था। किंतु अब स्थिति बदल रही है महासागरों और महाद्वीपों के बीच की दूरी हमने जलपोतों और वायुयानों की मदद से पाट दी है। इसे दृष्टिगत रखते हुए यह संभावना बनती है कि यदि इसी तरह हम विभिन्न पारिस्थितिकी क्षेत्रों की प्रजातियों को दूसरे पारिस्थितिक तंत्र तक पहुँचाते रहेंगे तो किसी दिन संभव है कि आक्रामक, महाप्रजातियां जल्द ही दुनिया पर राज करने लगें, और बाकी सब पाठ्यपुस्तकों में चित्रों के रूप में ही बच पाएगा। कथनाशय यह है कि पर्यावरण संरक्षण की प्राथमिक शर्त है – Think Globally and Act Locally.

 

हमने ग्यारह जुलाई को विश्व जनसंख्या दिवस मनाया, आगामी 28 जुलाई को विश्व प्रकृति संरक्षण दिवस मनाया जाएगा। हमें मानव संसाधन विकास की ऐसी योजना कर कार्य करना चाहिए जिससे अपनी जनसंख्या के लिए भोजन-पानी और रोजगार जुटा सकें, इसकी अभिवृद्धि पर लगाम लगाने मे सक्षम हों। अगले एक दशक मे भारत चीन को पीछे छोड़ कर विश्व की सबसे बड़ी जनसंख्या वाला देश बना जाएगा। अब गंभीरता से देखना होगा कि क्या हमारे पास इतने संसाधन हैं कि हमारा पर्यावरण आबादी का बोझ सह सकेगा? आबादी ने कैसे पर्यटन और उसके माध्यम से परिवेश को प्रभावित किया है इसपर  ऊपर हमने चर्चा की है। उपसंहार मे यही कहना उचित होगा कि विश्व बचेगा अगर पर्यावरण बचा रहा अर्थात इसके संरक्षण संवर्धन के लिए हमे जुट जाना चाहिए। संभवत: यही विश्व प्रकृति संरक्षण दिवस मनाये जाने के पीछे अंतर्निहित भावना भी है।

 

 

(अरुण कुमार मिश्रा)

कार्यपालक निदेशक (पर्यावरण एवं विविधता प्रबंधन)

 

आवरण चित्र साभार: https://www.planetware.com/tourist-attractions/ecuador-ecu.htm

Category:  Environment


 |    July 18, 2019 |   0 comment

पर्यावरण की समझ: एक विवेचना

Image address : https://sanitation.indiawaterportal.org/hindi/node/4033

 

पाठ्यपुस्तकों में पर्यावरण को समझाने वाली सभी परिभाषायें आधुनिक हैं। जब उद्योगों ने धरती, आकाश और पाताल कुछ भी नहीं छोडा तब हम एनवायरन्मेंट की बातें वैशविक सम्मेलनों में इकट्ठा हो कर करने लगे। भारत भी वर्ष 1986 के पश्चात से पर्यावरण सजग माना जाता है जबकि उसकी प्राचीन पुस्तकें यह मान्य करती हैं कि संपूर्ण सृष्टि पंचतत्त्वों अर्थात अग्नि , जल, पृथ्वी , वायु और आकाश से विनिर्मित हैं। पर्यावरण की सभी तरह की विवेचनायें क्या यहाँ पूर्णविराम नहीं पा जाती हैं? इन पंचतत्वों के संतुलन से हमारी प्रकृति और परिवेश निर्मित हैं और सुरक्षित भी, किसी भी एक तत्व का असंतुलन जैविक-अजैविक जगत को परिवर्तित अथवा नष्ट करने की क्षमता रखता है। आधुनिक परिभाषा कहती है कि पर्यावरण वह जो हमें चारों ओर से घेरे हुए है, ठीक यही हमारे शास्त्र कहते हैं कि परित: आवरणम (चारों ओर व्याप्त आवरण)। आधुनिक परिभाषा कहती है – पर्यावरण उन सभी भौतिक, रासायनिक एवं जैविक कारकों की समष्टिगत इकाई है जो किसी जीवधारी अथवा पारितंत्रीय आबादी को प्रभावित करते हैं तथा उनके रूप, जीवन और जीविता को तय करते हैं। यजुर्वेद में धरती, आकाश, पाताल, जल, वायु, औषधि आदि सभी के लिये शांति की कामना है – ओम द्यौ: शांति:, अंतरिक्ष ढं शांति:, पृथ्वी शांतिराप: शांतिरोषधय: शांति:। वनस्पतय: शांतिविश्वेदेवा शांति, ब्रम्ह शांति सर्व ढं शांति:, शांतिरेव शांति सामा शांतिरेधि:।

 

मैकाले प्रणाली की पुस्तकें बताती हैं कि पर्यावरण शिक्षा की जड़ें अठ्ठारहवीं सदी में तलाशी जा सकती हैं। जीन-जैक्स रूसो ने ऐसी शिक्षा के महत्व पर जोर दिया था जो पर्यावरण के महत्व पर केन्द्रित हों। इसके दशकों बाद, लुईस अगसिज़ जो एक स्विस में जन्मे प्रकृतिवादी थे, उन्होंने भी छात्रों को “किताबों का नहीं, प्रकृति का अध्ययन” करने के लिए प्रेरित किया और रूसो के दर्शन का समर्थन किया। इन दोनों प्रभावशील विद्वानों ने एक सुदृढ़ पर्यावरण शिक्षा कार्यक्रम की नींव डालने में सहायता की जिसे आज प्रकृति अध्ययन के नाम से जाना जाता है। अर्थात पश्चिम ने अट्ठारहवी सदी में पर्यावरण की आरम्भिक समझ विकसित की और बीसवी सदी तक आते आते इसे स्वरूप प्राप्त हुआ।  पर्यावरण तो भारतीय जीवन-दर्शन का अभिन्न हिस्सा रहा है। प्राचीन सभी प्रकार के शोध वस्तुत: ऋषियों की प्रकृति के प्रति समझ के विकास के साथ सामने आये हैं।

 

प्राचीन ग्रंथों में पर्यावरण के उल्लेखों को देख कर आश्चर्यमिश्रित हर्ष होता है कि हम आधुनिक सभ्यताओं की समझ से कई हजार साल पहले के लोग हैं। एक मोटे वर्गीकरण के आधार पर ऋग्वेद में अग्नि के रूप, रूपांतर और उसके गुणों की स्पष्ट व्याख्या की गई है। इसी तरह यजुर्वेद में वायु के गुणों, कार्य और उसके विभिन्न रूपों का आख्यान प्रमुखता से मिलता है। अथर्ववेद बहुत स्पष्टता से पृथ्वीतत्व का वर्णन प्राप्त हो जाता है। इसके पृथ्वी सूक्त में धरती की महानता उदारता और सर्वव्यापकता पर टिप्पणी करते हुए कहा गया है कि आपके लिए ईश्वर ने शीत वर्षा तथा वसंत ऋतुएँ बनाई हैं। दिन-रात के चक्र स्थापित किए हैं, इस कृपा के लिए हम आभारी हैं। मैं भूमि के जिस स्थान पर खनन करूं, वहाँ शीघ्र ही हरियाली छा जाए। सामवेद कहता है कि हे इंद्र तुम सूर्य रश्मियों और वायु से हमारे लिए औषधि की उत्पत्ति करो। छाँदोग्य उपनिषद् स्पष्ट करता है कि पृथ्वी जल और पुरुष सभी प्रकृति के घटक हैं। पृथ्वी का रस जल है, जल का रस औषध है, औषधियों का पुरुष रस है, पुरुष का रस वाणी, वाणी का ऋचा, ऋचा का साम और साम का रस उद्गीथ हैं, अर्थात् पृथ्वीतत्व में ही सब तत्वों को प्राणवान बनाने के प्रमुख कारण है। न्यायदर्शन में ईश्वर एवं जीव के साथ प्रकृति भी महत्वपूर्ण घटक है। वैशेषिक दर्शन भी पंचमहाभूत तत्वों को सृष्टि निर्माण के मुख्य तत्त्व मानता हैं। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में अभयारण्यों का वर्णन एवं उनका वर्गीकरण है। सम्राट अशोक के शासनकाल में वन्य जीवों के संरक्षण के लिये विविध नियम प्रतिपादित किये गये थे। रेखांकित कीजिये कि यह सब उन आधुनिक सभ्यताओं के आगमन से बहुत पहले के विवरण हैं जिनका लिखा भारतीय पाठ्यपुस्तकों के लिये पत्थर की लकीर बन गया है।

 

प्राचीन शास्त्रों में पर्यावरण के विभिन्न आयामों को कितनी खूबसूरती से विवेचित किया गया है इसके कुछ उदाहरण लेते हैं। हम प्रकृति के साथ माता-पुत्र का सम्बंध मानते थे – माता भूमि: पुत्रोअहं पृथिव्या: (अथर्ववेद)। मत्स्यपुराण में अधिक स्पष्ट उल्लेख है कि दस कुओं के बराबर एक बावड़ी होती है, दस बावड़ियों के बराबर एक तालाब, दस तालाबों के बराबर एक पुत्र है और दस पुत्रों के बराबर एक वृक्ष होता है – दशकूपसमा वापी दशवापीसमो ह्रदः। दशह्रदसमः पुत्रः दशपुत्र समो द्रुमः। वृक्षों के प्रति हमारी पुरातन समझ कहती है – वृक्ष जल है, जल अन्न है, अन्न जीवन है – ‘वृक्षाद् वर्षति पर्जन्य: पर्जन्यादन्न सम्भव:। वृक्ष और वनस्पति हमें सुख और स्वास्थ्य प्रदान करते रहें – शं न ओषधीर्वनिनो भवंतु (ऋग्वेद)। मनुस्मृति में उल्लेख है कि रात्रि में किसी वृक्ष के नीचे नहीं जाना चाहिये, आज इस तथ्य के पीछे हम कारबनडाईऑक्साईड के उत्सर्जन को कारक और सत्य मानते हैं – रात्रौ च वृक्षमूलानि दूरत: परिवर्जयेत। प्राचीन शास्त्र जल प्रदूषण को पारिभाषित भी करते हैं। ध्यान रहे कि वह समय औद्योगीकरण का नहीं था अर्थात वृहद प्रदूषण जैसी समस्यायें सामने नहीं थीं तब भी हम जल, वायु और मृदा को क्यों और कैसे शुद्ध करें यह जानते समझते थे। जल का महिमामण्डन करते हुए ऋग्वेद कहता है कि जल सभी औषधियों वाला है – आपश्च विश्वभेषजी। शतपथ ब्राम्हण में उल्लेख है कि जल ही जगत की प्रतिष्ठा है – आपो वा सर्वस्य जगत प्रतिष्ठा। मनुस्मृति स्पष्ट करती है कि उन समयों में प्रदूषित जल को निर्मली के फल से शुद्ध किया जाता था। इससे मिट्टी और दूषित कण नीचे बैठ जाते थे। जल को मोटे वस्त्र से छान कर पिया जाता था – फलं केतरूवृक्षस्य यद्यप्यम्बु प्रसादकम। न नामग्रहणादेवतस्य वारि प्रसीदति ।

 

जल के विभिन्न स्त्रोंतो पर भी प्राचीन शास्त्रों का ध्यान गया है। ऋग्वेद में उल्लेख है कि शन्नो अहिर्बुधन्य: शं समुद्र: अर्थात समुद्र के गहरे तलीय जल भी हमारे लिये सुख के प्रदाता हों। अथर्ववेद में उल्लेखित है कि मरुस्थल से मिलने वाला, अनूप प्राप्त होने वाला, कुंवे से प्राप्त होने वाला और संग्रहित किया हुआ जल स्वास्थ्यवर्थक और शुद्ध हो – शन आपो धन्वन्या शमुसंत्वनूपया शन: खनित्रिमा आप शमु या कुम्भ आभृता। वराहमिहिर रचित बृहत्संहिता में एक उदकार्गल (जल की रुकावट) नामक अध्याय है जिसके अंतर्गत भूगर्भस्थ जल की विभिन्न स्थितियाँ और उनके ज्ञान संबंधी संक्षेप में विवरण प्रस्तुत किया गया है। इसी प्रकार ऋग्वेद में कई स्थानों पर वायु और उसकी शुद्धि की कामना व उल्लेख है। वायु से दीर्घजीवन की प्रार्थना करते हुए उसे हृदय के लिये परम औषधि, कल्याणकारी और आनंददायक कहा गया है – वात आ वातु भेषजं शंभु मयोन्यु नोहृदे। प्रण आयूंषि तारिषत। उल्लेख है कि अंतरिक्ष धूल, धुँवे आदि से मुक्त रहे जिससे कि स्पष्ट देखा जा सके – शमंतरिक्ष दुश्येनो अस्तु। अंतरिक्ष में कल्याणकारी वायु चलती रहे – शनो भवित्र शमु अस्तु वायु। वायु एक स्थान पर बद्ध न हो कर दूषि पर अर्थात स्वच्छ रूप से दायें बायें प्रवाहित होती रहे – शं न दूषिपरो अभिवातु वात। प्राचीन शास्त्र भूमि के जल प्रदूषण से सम्बंध को भी स्थापित करते हैं। तैत्तरीय आरण्यक स्पष्ट करता है कि शौच क्रिया जल, अग्नि, उद्यान में, वृक्ष के नीचे, शस्ययुक्त क्षेत्र, बस्ती तथा देवस्थान के पास नहीं करना चाहिये – नाप्सु मूत्रपुरीषं कुर्यात न निष्ठीवेत न विवसन: स्नायात गुह्यतो वा इवोग्नि:।

 

प्राचीन ज्ञान आपको पर्यावरण के प्रति समझ विकसित करने का व्यापक आयाम प्रदान करता है। इन शास्त्रों से उद्धरित ज्ञान ही जाने अनजाने हमारी परम्परा बन गया। हिन्दू धर्मशास्त्रों में वर्णित अनेक विधान विभिन्न तरह की वृक्ष पूजाओं को प्रोत्साहित करते हैं। तमिल रामायण के अनुसार यदि कोई मनुष्य अपने जीवन काल में दस आम के वृक्ष लगा लेता है तो वह निश्चित रूप से स्वर्ग का भागी बनता है। बिल्वपत्र के वृक्ष को अमावस के दिन प्रातः जल चढ़ाकर धूप-दीपकर उसकी जड़ों में 50 ग्राम के लगभग शुद्ध गुड़ का चूरा रखने से अनेक रोगों से मुक्ति मिलती है। बारीकी से देखा जाये तो बिल्वपत्र के वृक्ष तो संरक्षण हुआ ही आस पास रहने वाली चींटियों और अन्य कीट पतंगों की भी दावत हो गयी। संरक्षण को धर्म के साथ जोडने के फलस्वरूप पीपल-बट-आम-नीम आदि के कई वृक्ष समाज की बाध्यता स्वरूप सुरक्षित रह गये हैं। बहुत से जीव-जंतु देवी-देवताओं के साथ सम्बद्ध हैं और उन्हीं के साथ पूजे जाते हैं। शेर, हंस, मोर और यहां तक कि उल्लू और चूहे भी तुरन्त दिमाग में आ जाते हैं जो कि देवी दुर्गा और उनके परिवार से संबंधित माने जाते हैं जिनकी दुर्गा पूजा के दौरान पूजा होती है। परम्परावादी लोग कभी भी तुलसी (ऑसिमम सैंक्टम) या पीपल (फाइकस बंगालेन्सिस) के पौधे को नहीं उखाड़ते, चाहे वह कहीं भी उगा हुआ हो। प्रायः परम्परागत धार्मिक क्रियाओं या व्रत के दौरान कोई न कोई वनस्पति प्रजाति महत्वपूर्ण मानी जाती है। ये तो कतिपय उदाहरण भर हैं हम पर्यावरण संरक्षण की मौलिक अवधारणा रखते हैं। कबीर परम्परावादी नहीं थे लेकिन वे भी जब व्यंग्य का सहारा लेते थे तब भी प्रकृति और पर्यावरण ही उनके बिम्ब बने। यह उदाहरण देखें कि निर्जीव प्रतिमा के लिये पेडों की पत्ती तोडने का क्या औचित्य वस्तुतः पत्ती-पत्ती में शिव का वास होता है – भूली मालिन पाती तोडे, पाती पाती सीव। जो मूरति को पाती तोडे, सो मूरति नरजीव।

 

राजीव रंजन प्रसाद

वरिष्ठ प्रबंधक (पर्यावरण)

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 |    July 18, 2019 |   2 comments

Plantation Drive at CIDC, Faridabad Centre lead by NHPC

On the invitation of Construction Industry Development Council (CIDC), Shri Balraj Joshi, Chairman & Managing Director, NHPC led a plantation drive organised by CIDC at their Faridabad Centre. Shri Joshi was accompanied by Shri Arun Kumar Mishra, Executive Director (Environment & Diversity Management) and other senior officers of EDM Division.

 

Speaking on the occasion, Shri Joshi appreciated the efforts taken by CIDC towards environment conservation and expressed his gratitude for inviting NHPC to be part of this great cause.

Category:  Environment


 |    July 18, 2019 |   3 comments

Visit of NHPC Officers to China for the Joint Certificate Course on “Improved Management of Land Acquisition, Resettlement and Rehabilitation (LARR)

Shri Nikhil Kumar Jain, Director (Personnel), Shri Ekramul Haque, General Manager (Human Resources) and Shri Gaurav Kumar, Deputy General Manager (Environment) attended the Joint Certificate Course on “Improved Management of Land Acquisition, Resettlement & Rehabilitation (LARR) organized by the Administrative Staff College of India (ASCI), Hyderabad and National Research Centre for Resettlement (NRCR) Hohai University, Nanjing, China. During the course, the officers visited Three Gorges Project (22,500 MW), the World’s largest Hydropower Project along with other hydropower and pump storage projects in China viz. Gezhouba Dam ( 2715 MW), Yichang, Tianmuhu Pump Storage Project (1836 MW), Niyang etc. The course served as an ideal platform to understand the Land Acquisition, Resettlement and Livelihood restoration initiatives being undertaken by China, which has the largest numbers of dams in the world, with special reference to the Three Gorges Project.

 

An employee awareness session was also organized by the Training and Development Division on 9.07.2019 to share the experience of the participants on their visit to China. During the session, comprehensive insight was provided on the Three Gorges Project, its importance in respect of flood control, navigation, drinking water, tourism, environment conservation, fishery management etc. Special focus was on the initiatives taken by the Chinese Government in the area of Land Acquisition, Resettlement & Rehabilitation, Skill Development, Livelihood assistance etc. Actual site photographs and videos were shared by the participants to elucidate the Chinese initiatives and best practices on above issues.

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 |    July 18, 2019 |   0 comment

PHOTOGRAPH OF THE WEEK

Environmental Awareness Paintings

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  “Pakshivihar” at Indirasagar Power Station, NHDC (A Joint Venture of NHPC and Govt. of MP) has become major public attraction. As such, it was planned by Project Environment Division to use this site for spreading message of environmental awareness among natives and visitors. Twenty five boundary wall panels and three wall sides were selected for preparation of environmental awareness paintings, which were surrounding Pakshi vihar site.  A well known artist and Kalaratna Shri Baijnath Saraf and his team has prepared excellent paintings on various subjects related to nature and environment. It is also worthwhile to mention that the team of artists was comprising of women power only (girls of school and colleges). The team was so dedicated that they have worked in hot summer, even in temperature of 46-48 degrees and prepared an excellent art gallery for NHDC. The artist Shri Bajnath Saraf and his team has done this work on voluntary basis and dedicated there work for cause of environment.

Category:  Environment


 |    July 18, 2019 |   2 comments

Frequently Asked Questions (FAQs) 1

Picture source =  https://www.prpeak.com/news/fisheries-and-oceans-canada-seeks-herring-input-1.23107114

 

FISHERIES

 

Q. Does damming of river cause reduction in river flow downstream thereby causing loss in aquatic fauna?

Ans.: Damming of river does cause reduction in natural river flow between dam and powerhouse, but a certain volume of water is released regularly as environmental flow/ minimum flow for sustenance of aquatic life in the downstream.

 

Q. What are the measures taken by NHPC in its Hydropower stations for management of impact on fisheries due to damming of river?

Ans.: Various measures are taken by NHPC for management of impact on fisheries due to damming of river. Some of the measures are as under:

  • Release of environmental flow of water in downstream of dam for sustenance of aquatic life of river as stipulated by Ministry of Env., Forests & Climate Change (MoEF & CC), Govt. of India based on prevailing norms and/or site specific scientific studies carried out through expert institutions.

 

  • Provision of Fish ladder in the barrage/dam of power stations to facilitate migration of fish across the barrier. The provisioning of Fish ladder depends upon the type and height of barrage/ dam.

 

  • Formulation of project specific Fisheries Management Plan in consultation with the State Fisheries Deptt, which includes various measures like seed propagation/ breeding of fishes in hatchery followed by river/reservoir ranching etc. These plans are generally implemented through State Fisheries Deptt. and the cost for the same is borne by NHPC.

 

Q. Why the fish migration is important?

Ans.: Every year, many fish species like Tor putitora, Tor tor, Neolissocheilus hexagonolepis, Schizothorax richardsonii, Schizothorax progastus etc, migrate to their spawning ground habitats for the purpose of reproduction. Some fishes swim more than 25 kms. through rivers to reach their destinations for spawning.

 

Q. Why Fish ladder is constructed ?

Ans.: Fish passage is essential for adult fish to be able to travel upstream to spawn and to be able to travel downstream after breeding. A fish ladder or fish way is often constructed to facilitate the upstream and downstream passage of fish around a dam or barrage, which might prevent or impede movement of fishes across river. Downstream passage of migrating fishes and some post-spawned adults are sometimes also provided by allowing sufficient amounts of water through spillway.

 

Q. In which projects of NHPC, fish ladders have been constructed?

Ans.: Based on the detailed scientific studies through different expert institutions, NHPC has constructed fish ladders in the barrage/ dam structure of URI-I Power Station (J&K), Tanakpur Power Station (Uttrakhand), TLD-III & TLD-IV Power Stations (West Bengal) to allow fish migration across the diversion structure.

 

Q. How much slope/gradient has been provided in the fish ladder?

Ans.: On an average, the slope/gradient in the fish ladder has been kept at 1:10.

 

Q. How much water depth and their velocity are maintained inside fish ladder?

Ans.: The design of the fish passages depends on the physical characteristics and capabilities of the migrating fish—such as body type and size, swimming ability, impact resistance, and leaping ability. The flow velocity through the fish ladder should be less than the sustained swimming capability for each species, and less than burst swimming ability over short distances. Similarly, minimum low-flow stream depths within fish passages should be maintained to accommodate fish size, swimming abilities and behavioural responses.

 

Q. How much water depth and their velocity are maintained inside fish ladder?

Ans.:  The design of the fish passages depends on the physical characteristics and capabilities of the migrating fish—such as body type and size, swimming ability, impact resistance, and leaping ability. The flow velocity through the fish ladder should be less than the sustained swimming capability for each species, and less than burst swimming ability over short distances. Similarly, minimum low-flow stream depths within fish passages should be maintained to accommodate fish size, swimming abilities and behavioural responses.

 

Q. Which type of fish farms are constructed under Fisheries Management Plan at projects?

Ans.: Generally, the cold-water fishes and carp fishes dominate the project areas of NHPC, because most of the NHPC projects are located in Himalayan stretch, where river water temperature lies in the range of 5 to 25 degree centigrade. Thus the Trout fish farm (with overhead tank, de-siltation tank, raceways, troughs, trays, nursery pond, rearing pond and stocking ponds) and farm with carp circular hatchery (with overhead tank, de-siltation tank, breeding/spawning pool, incubation/hatching pool, spawn collection chamber, nursery pond, rearing pond and stocking ponds) have been constructed in different projects based on the scientific studies and site specific requirements.

 

 [Contribution by: Manoj Kumar Singh, Senior Manager (Environment)]

 

Frequently Asked Questions (FAQs) 2

 

 

Category:  Environment


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पर्यावरण शब्दकोष (3)

Photograph Source : https://fineartamerica.com/featured/return-of-mother-nature-nick-gustafson.html?product=poster

 

क्र.

सं.

शब्द अर्थ
1 आर्द्रभूमि

(Wetland)

आर्द्रभूमि वह स्थान है जहाँ पानी भूमि से मिलता है। अर्थात् भूसतह का ऐसा भाग जो स्थाई रूप से या वर्ष के कुछ महीने जलमग्न रहता है।  इनमें मैंग्रोव, दलदल, नदी और झील,  नदीमुख-भूमि (Delta) , बाढ़ के मैदान और बाढ़ के जंगल, धान के खेत और यहाँ तक कि प्रवाल भित्तियाँ भी शामिल हैं।  आर्द्रभूमि  हर देश में और हर जलवायु क्षेत्र में, ध्रुवीय क्षेत्रों से उष्णकटिबंधीय तक और ऊंचाई से शुष्क क्षेत्रों तक मौजूद है। मानवकृत कृत्रिम जल स्थल जैसे मत्स्य पालन, जलाशय आदि भी वेटलैंड के अन्तर्गत हैं।प्रत्येक वेटलैंड का अपना पर्यातंत्र होता है अर्थात पारिस्थितिक तंत्र होता है। जैव विविधता होती है, वानस्पतिक विविधता होती है। ये वेटलैंड जलजीवों, पक्षियों, आदि प्राणियों के आवास होते हैं। मानवकृत कृत्रिम जल स्थल जैसे मत्स्य पालन, जलाशय आदि भी  आर्द्रभूमि के अन्तर्गत हैं।प्रत्येक  आर्द्रभूमि का अपना पारिस्थितिक तंत्र होता है, जैव विविधता एवं वानस्पतिक विविधता होती है। आर्द्रभूमि के क्षेत्र जलजीवों, पक्षियों आदि प्राणियों के आवास होते हैं।

 

2 आवास पारिस्थितिकी

(Habitat ecology)

पारिस्थितिकी तंत्र में आवास एक प्राकृतिक वातावरण का प्रकार है जिसमें जीव की एक विशेष प्रजाति रहती है। यह भौतिक और जैविक दोनों विशेषताओं से परिपूर्ण होता है। एक प्रजाति का निवास स्थान उन स्थानों पर होता है जहां प्रजनन के लिए भोजन, आश्रय, संरक्षण और साथी मिल सकते हैं।

 

3 आहार श्रृंखला

(Food chain)

 

 

किसी भी प्राकृतिक समुदाय में पाया जाने वाला जीवधारियों का क्रम जिसके माध्यम से ऊर्जा का स्थानान्तरण होता है, आहार श्रृंखला कहलाती है। आहार श्रृंखला में प्रथम पोषण स्तर (आधार स्तर) स्वपोषित जीवों का होता है जिसके अंतर्गत हरे पौधे आते हैं जो प्रकाश संश्लेषण विधि से अपना भोजन स्वयं तैयार करते हैं। द्वितीय पोषण स्तर के अंतर्गत वे शाकाहारी प्राणी सम्मिलित किये जाते हैं जो अपना भोजन प्रथम पोषण स्तर के पौधों से प्राप्त करते हैं। तृतीय पोषण स्तर के अंतर्गत मांसाहारी पशुओं को सम्मिलित किया जाता है जो द्वितीय पोषण स्तर के प्राणियों से मांस के रूप में भोजन प्राप्त करते हैं। चतुर्थ पोषण स्तर के अंतर्गत मनुष्य आता है जो प्रथम तीन पोषण स्तरों से भोजन तथा ऊर्जा प्राप्त करता है।

4 आहार जाल

(Food web)

 

एकल पारिस्थितिकी तंत्र में कई सारी आहार श्रृंखलाएं मिलकर आहार जाल का निर्माण करती हैं। इसके अंतर्गत आहार श्रृंखला सीधी न होकर जटिल हो जाती है। इसमें एक प्रकार के जीव कई प्रकार का भोजन या एक प्रकार के जीव कई प्रकार के जीवों द्वारा खाया जाता है। अत: प्रत्येक जीवित चीज कई खाद्य श्रृंखलाओं का हिस्सा होता है।

 

5 इको क्लब

(Eco club)

 

इको क्लब एक ऐसा मंच है जिसके माध्यम से विद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों के छात्रों को सार्थक पर्यावरण गतिविधियों और  पर्यावरण परियोजनाओं द्वारा पर्यावरण के बारे में व्याहवारिक ज्ञान दिया जाता है । यह छात्रों को एक पाठ्यक्रम या पाठ्यक्रम की सीमाओं से परे पर्यावरण अवधारणाओं और कार्यों का पता लगाने के लिए सशक्त करता है। भावी पीढ़ी के बीच पर्यावरण जागरूकता पैदा करने में इको क्लब महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। यह छात्रों को पर्यावरणीय समस्याओं से निपटने एवं पर्यावरणीय चिंता के प्रति संवेदनशील होने में सक्षम बनाता है।

 

 

6 इकोटोन

(Ecotone)

इकोटोन एक ऐसा क्षेत्र है जो दो पारिस्थितिकी प्रणालियों के बीच एक सीमा या संक्रमण के रूप में कार्य करता है। यहां दो अलग-अलग प्रकार के वातावरण का विलय और मिश्रण होता है। इकोटोन अत्यंत पर्यावरणीय महत्व के हैं। यह क्षेत्र दो पारिस्थितिक तंत्र या बायोम के बीच एक संक्रमण है अत: यह स्वाभाविक है कि इसमें जीव और वनस्पतियों की एक विशाल विविधता शामिल है क्योंकि यह क्षेत्र दोनों सीमावर्ती पारिस्थितिक तंत्र से प्रभावित होता है।  इकोटोन  क्षेत्रों के उदाहरणों में दलदली भूमि (शुष्क और गीले पारिस्थितिक तंत्र के बीच), मैंग्रोव वन (स्थलीय और समुद्री पारिस्थितिक तंत्र के बीच), घास के मैदान (रेगिस्तान और जंगल के बीच) और जंगल (खारे पानी और मीठे पानी के बीच) शामिल हैं। प्राकृतिक रूप से इकोटोन का गठन किया जा सकता है  जैसे – मृदा संरचना में  अजैविक कारकों  के माध्यम से परिवर्तन द्वारा। मानव हस्तक्षेप के परिणाम स्वरुप इकोटोन का निर्माण, जैसे- वन क्षेत्रों की सफाई या सिंचाई इसके उदाहरण हैं।

 

 

7 इकोमार्क

(Ecomark)

 

 

उपभोक्ता जागरूकता बढ़ाने हेतु भारत सरकार ने पर्यावरण के अनुकूल उत्पादों की आसान पहचान के लिए 1991 में  ‘इकोमार्क’ के रूप में इको-लेबलिंग योजना शुरू की। ‘इकोमार्क’ लेबल से उन उपभोक्ता वस्तुओं को चिन्हित किया जाता है जो निर्दिष्ट पर्यावरणीय मानदंडों और भारतीय मानकों की गुणवत्ता की आवश्यकताओं को पूरा करते हैं।यह बाजार में पर्यावरण के अनुकूल उत्पादों की पहचान करने में मदद करता है।यह चिह्न लगभग 16 श्रेणियों में जारी किया जा चुका है जैसे भोजन, दवाइयां, रसायन, इलेक्ट्रॉनिक सामान, कागज, चिकनाई वाले तेल, पैकिंग सामग्री इत्यादि। ‘इको मार्क योजना’ पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के दायरे में आती है।

 

 

8 इकोलॉजिकल एडाप्टेशन

(Ecological adaptation)

 

प्रत्येक जीव के पास एक अद्वितीय पारिस्थितिकी तंत्र होता है जिसके अंतर्गत वह रहता है। वह पारिस्थितिकी तंत्र उसका प्राकृतिक आवास है। यह वह जगह है जहां जीवित रहने के लिए जीव की बुनियादी जरूरतों को पूरा किया जाता है यथा भोजन, पानी, मौसम से आश्रय और प्रजनन के लिए अनुकूलता। सभी जीवों को जीवित रहने में सक्षम होने के लिए अपने निवास स्थान के अनुकूल होने की आवश्यकता होती है।यह ही पारिस्थितिक अनुकूलन/ इकोलॉजिकल एडाप्टेशन कहलाता है ।

 

 

9 इटाइ  इटाइ

(Itai Itai)

 

इटाई-इटाई एक बीमारी का नाम है जो कैडमियम के जहर के कारण जापान के टॉयमा प्रान्त में जिंज़ु नदी बेसिन पर  20 वीं शताब्दी की शुरुआत में सामने आया था। वहां कैडमियम को पहाड़ी खनन कंपनियों द्वारा नदियों में छोड़ा गया था। यह और अन्य भारी धातुओं के साथ नदी के तल पर जमा होती रही । नदी के पानी का उपयोग धान के खेत, मिट्टी के लिए और अन्य जरूरतों के लिए किया गया जिसके बाद गंभीर रीढ़ और जोड़ों के दर्द का सामना स्थानीय लोगों को करना पड़ा तब कैडमियम की विषाक्तता सामने आई।  हालांकि उस समय इसकी जानकारी नहीं थी कि कैडमियम के जहर से हड्डियों में नरमी और किडनी फेल भी हो सकती है। आधिकारिक तौर पर कानूनी कार्यवाही के बाद जापान में पर्यावरण प्रदूषण से प्रेरित पहली बीमारी के रूप में 1968 में इटाई-इटाई बीमारी को मान्यता दी गई ।

 

 

10 इन्फ्रारेड रेडिएशन

(Infrared radiation)

इन्फ्रारेड रेडिएशन/अवरक्त विकिरणको सामान्यता केवल इन्फ्रारेड के रूप में भी संदर्भित किया जाता है। यह विद्युत चुम्बकीय विकिरण स्पेक्ट्रम का एक क्षेत्र है जहां तरंगदैर्घ्य लगभग 700 नैनोमीटर से 1 मिलीमीटर तक होता है। अवरक्त/ इन्फ्रारेड  तरंगें दृश्यमान प्रकाश की तुलना में लंबी होती हैं लेकिन रेडियो तरंगों की तुलना में कम होती हैं।यह मानव आंख के लिए अदृश्य है, हालांकि इन तरंगों को गर्मी के रूप में महसूस किया जा सकता है।

 

– पूजा सुन्डी

सहायक प्रबंधक ( पर्या. )

पर्यावरण शब्दकोष (2)

Category:  Environment


 |    July 18, 2019 |   0 comment

पार्बती जल विद्युत परियोजना चरण-II की 15वीं पर्यावरण निगरानी समिति की बैठक

मुख्य महाप्रबंधक (प्रभारी) द्वारा कुल्लवी शाल पहनाकर समिति सदस्यों का स्वागत

 

पार्बती जल विद्युत परियोजना चरण-II, नगवाई की 15वीं पर्यावरण निगरानी समिति की बैठक दिनांक 11.06.2019 से 12.06.2019 तक संपन्न हुई। पर्यावरण निगरानी समिति की बैठक मुख्य महाप्रबंधक (प्रभारी), पार्बती –II परियोजना की अध्यक्षता एवं डॉ एस सी कटियार, अपर निदेशक/वैज्ञानिक –ई, क्षेत्रीय कार्यालय, पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय, देहरादून की उपस्थिति में संचालित हुई। बैठक के दौरान पर्यावरण विभाग के प्रभारी श्री एस एल कपिल, मुख्य महाप्रबंधक ने पर्यावरण प्रबंधन योजनाओं की प्रगति के बारे में विस्तार से समिति के सदस्यों को बताया। समिति की बैठक में राज्य वन विभाग, जीएचएनपी, राज्य प्रदूषणं नियंत्रण बोर्ड, राज्य मत्स्य विभाग एवं एनजीओ के प्रतिनिधि भी मौजूद रहे। डॉ एस सी कटियार एवं समिति के सदस्यों ने परियोजना के जलग्रहण उपचार क्षेत्र का स्थलीय निरीक्षण किया और किए गए पौधारोपण के कार्यों की प्रशंसा की। बैठक के दौरान श्री पी के मलिक, वरिष्ठ प्रबंधक (पर्यावरण) द्वारा परियोजना में पर्यावरण संबंधी कार्यों के क्रियान्वयन के बारे में बताया गया ।

Category:  Environment


 |    July 18, 2019 |   0 comment

पर्यावरण वार्ता (अंक 7 )

इस वर्ष स्वतंत्रता दिवस के पावन प्रभात में हमारे माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने लाल किले की प्राचीर से पर्यावरण संरक्षण का संदेश भी दिया। उन्होने समस्त भारतवासियों से अपेक्षा की है कि देश को पोलीथीन मुक्त करने के लिए उसी तरह का अभियान चलाया जाये जैसा स्वच्छता अभियान संचालित हो रहा है। प्रधानमंत्री ने स्पष्टत: कहा कि एक बार इस्तेमाल होने वाले पोलीथीन का पूरी तरह त्याग कर दिया जाना चाहिए। इसके विकल्प के रूप में कपड़े अथवा जूट के थैलों के प्रयोग को प्रोत्साहित किया जाना चाहिये। आगामी दो अक्टूबर अर्थात राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की जयंती के अवसर पर प्लास्टिक कचरे के एकत्रीकरण एवं उसके सुचारू रूप से निष्पादन करने पर अनेक राष्ट्रीय कार्यक्रमों का आगाज किया जाना है। हम सभी को सुनिश्चित करना चाहिये कि प्लास्टिक कचरे को कम करने में हमारी क्या भूमिका हो सकती है। कहते हैं बूंद बूंद से घड़ा भरता है अर्थात प्रत्येक नागरिक द्वारा स्वयं के स्तर पर किया गया प्रयास स्वच्छता क्रांति में परिवर्तित हो सकता है।

 

वर्ल्ड इकोनॉमिक फ़ोरम की एक रिपोर्ट के अनुसार प्रत्येक वर्ष लगभग अस्सी लाख टन प्लास्टिक कचरा हमारे महासागरों में समाहित हो जाता है। महासागर तक पहुँचने वाले प्लास्टिक कचरे का नब्बे प्रतिशत हिस्सा जिन नदियों से आता है वे हैं – यांग्त्जे, गंगा, सिंधु, येलो, पर्ल, एमर, मिकांग, नाइल और नाइजर। इस सूची में प्लास्टिक कचरा वाहित करने वाली सर्वाधिक नदियां चीन से हैं परंतु इसमें भारत की गंगा और सिंधु नदी का नाम होना हमारे लिए चिंता का विषय अवश्य है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की एक रिपोर्ट बताती है कि भारत मे प्लास्टिक की बोतलें ही सबसे बड़ा कचरा है। संपूर्ण उत्पादित प्लास्टिक कचरे का केवल दस प्रतिशत ही रि-साइकिल किया जा सकता है, शेष नब्बे प्रतिशत हमारी जमीन और पानी को दूषित कर रहा है। ध्यान देने योग्य बात है कि रि-साइक्लिंग की प्रक्रिया भी प्रदूषण को बढ़ाती है। रंगीन प्लास्टिक थैलों में ऐसे रसायन होते हैं जो ज़मीन में पहुंच जाते हैं और मिट्टी और भूगर्भीय जल को विषैला बना देते हैं। रि-साइकिलिंग के दौरान पैदा होने वाले विषैले धुएं से वायु प्रदूषण फैल रहा है। अर्थात किसी भी रूप मे पोलीथीन और अन्य प्रकार के प्लास्टिक कचरे का प्रयोग लाभकारी नहीं है।

 

पर्यावरण वन तथा जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने रि-साइकिल्ड प्लास्टिक मैन्यूफैक्चर एंड यूसेज़ रूल्स-1999 जारी किया था। इस रूल को वर्ष 2003 में पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम-1968 के तहत संशोधित किया गया है, जिससे कि प्लास्टिक की थैलियों और डिब्बों का नियमन और प्रबंधन सही तरीक़े से किया जा सके। भारतीय मानक ब्यूरो (बीआईएस) ने भी धरती में घुलनशील प्लास्टिक के 10 मानकों के बारे में अधिसूचना जारी की है। नियम-कानून सब उपलब्ध हैं बस जागरूकता की कमी है। हमें देश भर में सफलतापूर्वक चल रहे स्वच्छता अभियान का प्राथमिक हिस्सा प्लास्टिक प्रदूषण से अवमुक्ति को बनाना चाहिए।

 

(हरीश कुमार)

मुख्य महाप्रबंधक (पर्यावरण एवं विविधता प्रबंधन)   

Category:  Environment


 |    September 3, 2019 |   0 comment

पर्यावरण और सामाजिक उत्तरदायित्व पर डॉक्यूमेंट्री का अनावरण

निगम मुख्यालय, फरीदाबाद में दिनांक 19 अगस्त 2019 को आयोजित कार्यक्रम में माननीय अध्यक्ष एवं प्रबंध निदेशक महोदय श्री बलराज जोशी द्वारा पर्यावरण एवं सामाजिक उत्तरदायित्व पहलुओं को प्रदर्शित करने वाली डॉक्यूमेंट्री “एनएचपीसी  – जहाँ संरक्षण एक परंपरा है”  का अनावरण किया गया। इस अवसर पर निदेशक (परियोजनाएं), श्री रतीश कुमार, निदेशक (वित्त), श्री एम.के. मित्तल, निदेशक (तकनीकी), श्री जनार्दन चौधरी एवं अन्य वरिष्ठ अधिकारीगण उपस्थित रहे। इस डॉक्यूमेंट्री का निर्माण कॉर्पोरेट कम्युनिकेशन डिवीजन द्वारा पर्यावरण और विविधता प्रबंधन विभाग के साथ मिलकर कराया गया है।

 

माननीय अध्यक्ष एवं प्रबंध निदेशक महोदय ने अपने व्याख्यान में कहा कि एनएचपीसी स्थापना के बाद से हमेशा पर्यावरणीय मुद्दों के प्रति संवेदनशील दृष्टीकोण रखता रहा है।हम जलविद्युत के माध्यम से स्वच्छ और हरित ऊर्जा उत्पन्न करने के लिए निरंतर प्रयासरत हैं। जागरूकता पैदा करने के लिए एनएचपीसी द्वारा निरंतर किए जा रहे पर्यावरण संरक्षण के विभिन्न पह्लुओं को हितधारकों के बीच सार्वजनिक करने की आवश्यकता है। उन्होंने एनएचपीसी में पर्यावरण संरक्षण के लिए किए जा रहे कार्य, जैसे कि जलग्रहण क्षेत्र उपचार, जैवविविधता संरक्षण, मलबा निपटान क्षेत्र की बहाली, प्रतिपूरक वनीकरण, मत्स्य प्रबंधन आदि पह्लुओं के साथ-साथ पुनर्वास और पुनर्स्थापना के सामाजिक उत्तरदायित्व के सशक्त प्रचार-प्रसार हेतु इस डॉक्यूमेंट्री को एक सशक्त माध्यम बताया ।

 

मुख्य महाप्रबंधक (पर्यावरण), श्री हरीश कुमार ने अपने स्वागत संबोधन में कहा कि जलविद्युत न्यूनतम पर्यावरणीय प्रभाव के साथ ऊर्जा का सबसे स्वच्छ, सहज एवं स्थायी स्रोत है। एनएचपीसी पर्यावरण संबंधी सभी वैधानिक मानदंडों और शर्तों का अनुपालन कर रहा है । एनएचपीसी द्वारा किए जा रहे पर्यावरणीय पहलों का व्यापक प्रचार सुनिश्चित करने के लिए जलविद्युत परियोजनाओं के विकास से जुड़े मिथकों और आशंकाओं को दूर करना महत्वपूर्ण है जिसके लिए डॉक्यूमेंट्री एक उचित माध्यम है ।

 

Documentary Link (English)   Documentary on Environmental Aspects : Where conservation is a Tradition

Documentary Link (Hindi)   पर्यावरणीय पहलुओं पर डॉक्यूमेंट्री : जहाँ संरक्षण एक परंपरा है

 

Category:  Environment


 |    September 3, 2019 |   1 comment

Presentation by NHPC at the Annual Director’s Conclave of Institute of Directors (IOD), India

Institute of Directors (IOD), India an apex association of company directors and senior business leaders organized a Director’s Conclave on its 29th Annual Day on 26th August, 2019 at Hotel The Ashok, New Delhi. The conclave with a theme “Future Boards: Leading Strategy to Embrace Sustainability” was organized with an intention to give the participants greater insight into corporate governance and best practices and facilitate the exchange of innovative ideas and roadmap for accelerating Board Performance and Effectiveness for future.

NHPC was invited by IOD to give a special presentation on the issue and on behalf of NHPC, the presentation titled “Paradigm Shift in Business Sustainability-NHPC’s Experience” underlining the environment & social performance of NHPC was presented by Dr. Sujit Kumar Bajpayee, DGM (Environment). The presentation highlighted various environmental and social initiatives undertaken by NHPC beyond the statutory requirements and how NHPC has been able to achieve sustainable growth by integrating environment & social considerations into its business from the planning stage itself.

Category:  Environment


 |    September 3, 2019 |   0 comment

पर्यावरण शब्दकोष (4)

Photograph Source : https://previews.123rf.com/images/natuskadpi/natuskadpi1301/natuskadpi130100001/17185219-summer-landscape-with-green-flowering-field-forest-mountains-and-lake-on-a-blue-cloudy-sky-backgound.jpg

 

क्र. शब्द अर्थ
1 ई – कचरा

(E-waste)

इलेक्ट्रॉनिक कचरा या ई-कचरा, इलेक्ट्रॉनिक उत्पादों के लिए एक शब्द है जो अवांछित, अनुपयोगी या अप्रचलित हो गया है और अनिवार्य रूप से उनके उपयोगी जीवन के अंत तक पहुंच गया है। प्रौद्योगिकी उच्च दर पर आगे बढ़ती है, कई इलेक्ट्रॉनिक उपकरण कुछ वर्षों के उपयोग के बाद “कचरा” बन जाते हैं। वास्तव में, पुरानी इलेक्ट्रॉनिक वस्तुओं की पूरी श्रेणियां ई-कचरे में योगदान करती हैं।

 

2 ई. कोलाई

(E.coli)

ई- कोलाई (एस्चेरिचिया कोलाई/ Escherichia coli), एक प्रकार का बैक्टीरिया है जो आमतौर पर  स्वस्थ लोगों और जानवरों की आंतों में रहता है। इसके अधिकांश प्रकार हानिरहित हैं और यहां तक कि पाचन तंत्र को स्वस्थ रखने में मदद करते हैं। लेकिन इसकी कुछ प्रजातियों के कारण दस्त हो सकते हैं यदि संक्रमित भोजन या पानी ग्रहण किया जाता है जैसे ई-कोलाई O157: H7 पेट में  गंभीर ऐंठन, खूनी दस्त और उल्टी पैदा कर सकता है।

 

3 उच्च ध्वनि स्तर

(Loudness level)

लोगों में  ध्वनि/शोर के प्रभाव अलग-अलग होते हैं। कुछ लोगों के कान ऊँची आवाज़ के प्रति अधिक संवेदनशील होते हैं, विशेषकर निश्चित आवृत्तियों पर। कोई भी आवाज़ जो बहुत तेज़ होती है और बहुत देर तक चलती है, कानों को नुकसान पहुंचा सकती है और सुनने की क्षमता कम करती है, उच्च ध्वनि स्तर कहलाती है। डेसीबल (dB) में ध्वनि की तीव्रता को मापा जाता है। सामान्य बातचीत का स्तर 60 डीबी, एक लॉन घास काटने की मशीन 90 डीबी और एक ज़ोरदार रॉक कॉन्सर्ट लगभग 120 डीबी तक तीव्र होता है। सामान्य तौर पर 85  डीबी से ऊपर की आवाजें हानिकारक होती हैं।

 

4 उत्तराधिकार/ पारिस्थितिक उत्तराधिकार

(Succession/Ecological Succession)

उत्तराधिकार/पारिस्थितिक उत्तराधिकार वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा जैविक समुदाय की संरचना समय के साथ विकसित होती है।यह समय के साथ एक पारिस्थितिक समुदाय की संरचना में प्रगतिशील परिवर्तनों की एक श्रृंखला है।उत्तराधिकार के दो अलग-अलग प्रकार प्राथमिक और माध्यमिक प्रतिष्ठित किए गए हैं।प्राथमिक उत्तराधिकार में पहली बार जीवित चीजों द्वारा नव उजागर या नवगठित चट्टान का उपनिवेश किया जाता है।द्वितीयक उत्तराधिकार में पहले जीवित चीजों द्वारा कब्जा कर लिया गया क्षेत्र अशांत होकर फिर से संगठित होता है।

 

5 उत्परिवर्तन

( Mutation)

उत्परिवर्तन आनुवांशिक अनुक्रम में परिवर्तन है और यह जीवों के बीच विविधता का एक मुख्य कारण हैं। ये परिवर्तन कई अलग-अलग स्तरों पर होते हैं और उनके व्यापक रूप से भिन्न परिणाम हो सकते हैं। जैविक प्रणालियों में जो प्रजनन में सक्षम हैं, कुछ उत्परिवर्तन केवल उस व्यक्ति को प्रभावित करते हैं जो उन्हें वहन करते हैं जबकि अन्य वाहक जीव के सभी संतानों और आगे के वंश को प्रभावित करते हैं।

 

6 उत्प्रेरित अवमल

(Activated Sludge)

उत्प्रेरित अवमल एक गाढ़ा मुलायम पदार्थ होता है जिसका उपयोग ऑक्सीजन को सम्मिलित करते हुए जैविक प्रतिक्रिया द्वारा अपशिष्ट जल से प्रदूषकों को हटाने के लिए किया जाता है। इस विधि में दूषित जल में सूक्ष्म जीवाणुओं को अच्छी तरह मिलाकर  वायु-संचारण (aerate) किया जाता है, जिससे सूक्ष्म जीवाणुओं की कार्बनिक पदार्थयुक्त दूषित जल में तीव्रता से वृद्धि होती है। फलस्वरूप इनकी गतिविधियाँ बढ़ जाती है और ये तेजी से कार्बनिक पदार्थों को अपघटित कर देते हैं। इस विधि से कार्बनिक पदार्थ का अपघटन तेजी से होता है एवं इससे 90-95 प्रतिशत बीओडी (Biological Oxygen Demand) कम की जा सकती है।

 

7 उत्स्रवण

(Upwelling)

समुद्र की ऊपरी सतह पर बहने वाली हवाएँ पानी को दूर धकेलती हैं। पोषक तत्वों से भरपूर निचली सतह का पानी सतह के पानी के बहाव को बदलने के लिए गहरे स्तर से उठता है और ये पोषक तत्व इन क्षेत्रों में आमतौर पर पाई जाने वाली बड़ी मछली की आबादी के समर्थन के लिए जिम्मेदार होते हैं। इस प्रक्रिया को ” उत्स्रवण/उत्थान” के रूप में जाना जाता है। यह हवाओं और पृथ्वी के घूमने का एक परिणाम है।  उथल-पुथल की प्रभावशीलता और प्रचुर समुद्री जीवन का समर्थन करने की इसकी क्षमता थर्मोकलाइन (thermocline) * की गहराई पर बहुत निर्भर करती है।

* thermocline = an abrupt temperature gradient in a body of water such as a lake, marked by a layer above and below which the water is at different temperatures.

 

8 ऊसर भूमि

(Barren Land )

   अनुपजाऊ भूमि, जिसमें कुछ उत्पन्न न हो व जिसकी उत्पादन क्षमता कम होती है किंतु आधुनिक समय में विभिन्न तकनीकों द्वारा इसे पुन: उपजाऊ बनाया जा सकता है। इस प्रकार की भूमि प्राय: कृषि योग्य नहीं होती। इसमें सोडियम, पोटेशियम एवं मैग्नीशियम अधिक मात्रा में पाए जाते हैं। ऊसर भूमि की मिट्टी का पी.एच. मान 8.5 से ज़्यादा होता है। धान के पुवाल, गोबर की खाद, वर्मी कंपोस्ट का उपयोग करके ऊसर भूमि में उर्वरा शक्ति पैदा की जा सकती है।

 

9 उर्वरता/उपजाऊपन

( Fertility )

उर्वरता कृषि पौधे के विकास को बनाए रखने के लिए मिट्टी की क्षमता को संदर्भित करती है, अर्थात् मिटटी में उपस्थित वह गुण जो पौधे को आवास प्रदान करने के लिए आवश्यक होता है और उच्च गुणवत्ता की निरंतर और लगातार पैदावार बढ़ाने में सहायक होता है। मिट्टी उर्वरता में खनिजों जैसे नाइट्रोजन, पोटेशियम और फॉस्‍फोरस की उपस्थिति को मुख्यतः विचार में लिया जाता है।

 

10 उर्वरक

(Fertilizer)

उर्वरक ऐसे रसायनिक पदार्थ होते हैं जो पेड़-पौधों की वृद्धि में बहुत ही सहायक होते हैं। प्राय: पौधों को उर्वरक दो प्रकार से दिये जा सकते हैं- (1) ज़मीन में डालकर, जिससे ये तत्व पौधों की जड़ों द्वारा अवशोषित कर लिए जाते हैं। (2) पत्तियों पर इनका छिड़काव करने से पत्तियों द्वारा ये अवशोषित कर लिये जाते हैं। उर्वरक मुख्यतः पौधों के लिये आवश्यक तत्वों की पूर्ति करते हैं। उर्वरक, पौधों के लिये आवश्यक तत्वों की तत्काल पूर्ति के साधन हैं लेकिन इनके प्रयोग के कुछ दुष्परिणाम भी हैं। ये लंबे समय तक मिट्टी में बने नहीं रहते हैं। सिंचाई के बाद जल के साथ ये रसायन जमीन के नीचे भौम जलस्तर तक पहुँचकर उसे दूषित करते हैं। मिट्टी में उपस्थित जीवाणुओं और सुक्ष्मजीवों के लिए भी ये घातक साबित होते हैं। इसलिए उर्वरक के विकल्प के रूप में जैविक खाद का प्रयोग उपयुक्त है।

 

– पूजा सुन्डी

सहायक प्रबंधक ( पर्या. )

पर्यावरण शब्दकोष (3)

Category:  Environment


 |    September 3, 2019 |   0 comment

PHOTOGRAPH OF THE WEEK

Hill slope of left bank of TLD-IV Power Station near Dam site is successfully restored through engineering and biological measures conducive to the terrain. Engineering measures such as retaining walls were constructed at the base of the slope and different biological measures were adopted keeping in view the local eco-climatic conditions. Biological protection measures such as bamboo palisade (Belly Benching) have been provided over the slope to avoid further erosion at this location and also to support biological rejuvenation.

Category:  Environment


 |    September 3, 2019 |   1 comment

Investigations on the Use of Dolochar for Removal of Surfactant from Aqueous Solution: Statistical and Kinetic Modeling

आवरण चित्र साभार : www.google.com

 

Potable water is receding at a faster pace and to find an alternative to freshwater resources it becomes imperative to adopt sustainable solutions like recycling of wastewater. Urbanization, economic development, changing consumption patterns and population growth have led to increase in water demand. Disturbingly high rates of consumption of surfactants in household and industries have led to mark them as emerging contaminants in the environment. Surfactants are widely used in detergents, fabric softeners, soaps, personal care products like shampoos, cosmetics etc. and in several industrial processes like agriculture, paints, textiles, pharmaceuticals and pesticide formulations. Instances of polluted lakes spewing froth and creating uncomfortable conditions in nearby areas have become common. As an example, Bellandur lake in Bengaluru, India was recently in news for discharging heavy volumes of froth on adjacent roads and residential areas. It was speculated that indiscriminate usage of large amounts of detergents by households could be one of the reasons for waves of foam formation.

 

In the present work, removal of sodium dodecyl sufate (SDS), an anionic surfactant using an industrial waste named dolochar was explored. SDS molecule contains a hydrophobic tail (long chain of carbon which is water hating) and a hydrophilic head (negatively charged sulphonate group which is water loving). The sponge iron industry produces char (dolochar) as a waste material (non-magnetic portion) during direct reduction of iron (DRI) by rotary kilns. Iron-ore, non-coking coal and dolomite are the main ingredients required for the production of sponge iron. The produced dolochar very often finds its way in landfills/dump yards. Minor proportions of dolochar are utilized in brick making industry or as domestic fuel. Simple dumping of dolochar can cause serious damage to the environment via leaching of numerous toxic substances present in it. Using dolochar for treatment of wastewater can help in efficiently utilizing the solid waste and thereby preventing it to go to the dumping sites. Low cost, simplicity of operation and design, less maintenance, and lesser area occupancy are advantages offered by the adsorption technique. Hence this technology was explored in the study. The adsorbent material was characterized using sophisticated instruments like Fourier-transform infra-red spectroscopy (FTIR) and X-ray diffraction (XRD). Adsorption experiments were executed using batch and column studies. The experimental data were analyzed by various adsorption isotherm models and kinetic studies were conducted. For column study a column of 28 mm internal diameter and 550 mm length with a fixed micro-porous layer present at the bottom for supporting the adsorbent material from flowing out was taken. The column was loaded with dolochar with different adsorbent doses viz: 10 g, 20 g and 30 g and the corresponding bed depths were 1.7 cm, 3.1 cm and 4.8 cm respectively. The performance of the column was judged via two mathematical models viz: Bed depth service time (BDST) model and Logit method. On running a total fifteen number of experiments in Box-Behnken design (BBD) approach the optimized conditions for SDS removal were found to be adsorbent dose 16.62 g/L, contact time 40 min. and initial concentration 47 mg/L with removal efficiency as 98.91%.

 

The present work on adsorption of SDS over dolochar showed promising results. The adsorption process was found to get affected by parameters like contact time, adsorbent dose, agitation speed and initial SDS concentrations. Response surface modeling which utilized Box-behnken design approach was employed to evaluate how various parameters affect removal efficiency when they were varied simultaneously. It was found that adsorbent dose and initial concentration were the most significant factors that affected the removal efficiency. It was found that SDS molecules adsorb onto dolochar surface with single-layer coverage. The time required to attain equilibrium was 60 minutes. With increase in adsorbent dose the removal efficiency increased due to availability of more active sites for adsorption. Consequently, the removal efficiency increased drastically within five minutes. This was attributed to initial concentration gradient of SDS and the adsorbate molecules adsorbed through physical adsorption. The agitation speed also significantly contributed to removal efficiency and optimum shaking speed was found to be 150 rpm. Probable adsorption mechanism was electrostatic and tail-tail interactions. The column study provided various insights into design of an adsorption column when in real conditions. Validation of BDST model was proved in the study. Present study not only demonstrated as an alternative to the commercially available activated carbon for removing anionic surfactant from water/wastewater but also depicts the value-added management industrial waste (dolochar), which can pose environmental hazards to our ecosystem, if discarded openly. It is realized that the adsorbent dose required for pollutant removal is on a higher side but putting an industrial waste material to a better use than simple eco-unfriendly disposal (via landfill etc.) seems to be a fair option neglecting the bulk utilized for removal and hence becomes a trivial issue.

 

श्रेया

सहायक प्रबंधक (पर्यावरण)

 

**The paper titled “Adsorptive Removal of Surfactant using Dolochar: A Kinetic and Statistical Modeling Approach” has been accepted in the journal- Water Environment Research. Link to the article : https://onlinelibrary.wiley.com/doi/abs/10.1002/wer.1193

Category:  Environment


 |    September 3, 2019 |   0 comment

Frequently Asked Questions (FAQs) 2

Picture source = https://www.firstpalette.com/craft/rainforest-diorama.html

 

BIODIVERSITY

 

Q. What is Biodiversity?

Ans. : Biodiversity/Biological diversity refers to all the variety of life that can be found on Earth (plants, animals, fungi, micro-organisms etc.) as well as to the communities that they form and the habitats in which they live. It forms the web of life of which we are an integral part and upon which we so fully depend. It deals with the degree of nature’s variety in the biosphere. This variety can be observed at three levels; the genetic variability within a species, the variety of species within a community, and the organisation of species in an area into distinctive plant and animal communities constituting ecosystem diversity.

 

Q. Why should we be protecting Biodiversity loss?

Ans. : Biodiversity is of great importance in order to maintain stable ecosystems. It provides sustainability of fundamental resources which are essential for existence of living being including human on this planet. It acts as natural wealth for socio economic development and provides balance in natural processes. A wide verity of natural products support various industries as agriculture, cosmetics, pharmaceuticals, pulp and paper, horticulture, construction, waste treatment etc. The loss of biodiversity threatens our food supplies, opportunities for recreation and tourism, and sources of wood, medicines and energy and many more.

 

Q. Is there any effort at international level regarding Biodiversity conservation?

Ans. : In 1992, the largest-ever meeting of world leaders took place at the United Nations Conference on Environment and Development in Rio de Janeiro, Brazil. Historic agreements were signed at the “Earth Summit“, including two binding agreements, the Convention on Climate Change, which targets industrial and other emissions of greenhouse gases such as carbon dioxide, and the Convention on Biological Diversity, the first global agreement on the conservation and sustainable use of biological diversity. The biodiversity treaty gained rapid and widespread acceptance. Over 150 governments signed the document at the Rio conference. The Convention establishes three main goals: the conservation of biological diversity, the sustainable use of its components, and the fair and equitable sharing of the benefits from the use of genetic resources.

 

Q. Is there any policy framework at national level for conservation of Biodiversity?

Ans. : India is a megadiverse country that harbours 7-8% of all recorded species, including 45,000 species of plants and 91,000 species of animals on only 2.4% of world’s land area. Biodiversity forms the cornerstone of ecosystem functions and services that supports millions of livelihoods in the country. India has been persevering in its efforts to conserve this vital biodiversity and ecosystems. As a party to Convention on Biological Diversity (CDB) that mandates parties to prepare a national biodiversity strategy and action plan for implementing the convention at the national level, India developed a National Policy and Macro level Action Strategy on Biodiversity in 1999. Subsequent to the adoption of National Environment Policy (NEP) in 2006, a National Biodiversity Action Plan (NBAP) was developed through comprehensive inter-ministerial process in 2008. India’s NBAP is broadly aligned to the global Strategic Plan for Biodiversity 2011-2020 adopted under the aegis of CBD in 2011. Using the Strategic Plan as a framework, India has now developed 12 National Biodiversity Targets through extensive stakeholder consultations and public outreach.

 

Q. What are the efforts undertaken by NHPC for conservation of Biodiversity?

Ans. : NHPC’s projects are usually situated in remote hilly areas such as North and North Eastern Himalayan States of India which are generally rich in biodiversity. Based on the finding of Environment Impact Assessment (EIA) studies, project specific conservation measures for biodiversity conservation are suggested in the Environment Management Plan (EMP) report. The activities include ex-situ conservation measures viz. development of Botanical Garden, Arboretum, Butterfly Park, Biodiversity Conservatories, etc., and, in-situ conservation measures like habitat improvement, preservation of biological rich area, anti-poaching activities, etc. An Orchidarium and arboretum have been developed by the Darjeeling Forest Division near Teesta Low Dam –III & IV Power Stations, West Bengal. Biodiversity conservatories have been developed for conservation of local floral species at Uri-II, Sewa-II Power stations, J&K. At Teesta-V Power Station, Sikkim, a butterfly park has been created in association with State Forest Department. Besides this, habitat improvement has been done to preserve local faunal species viz. flying fox. At Lower Subansari Project, Arunachal Pradesh, to maintain and enhance floral and faunal habitat, two Orchidaria have been established. Botanical Garden and an arboretum over an area of 40 ha have been developed with help of Botanical Survey of India at Kalpong project in North Andaman. At Kishanganga Power Station, J&K, to reduce man-animal conflict, automatic animal rescue cages have been provided to the Wildlife Department., Govt. of J&K.

 

[Contribution by: Kumar Manish, Senior Manager (Environment)]

 

Frequently Asked Questions (FAQs) 3

 

 

Category:  Environment


 |    September 3, 2019 |   1 comment

NHPC’s Teesta-V (510 MW) Power Station, in Sikkim has been rated as an example of international good practice in hydropower sustainability by International Hydropower Association (IHA)

NHPC’s Teesta-V (510 MW) Power Station, in Sikkim has been rated as an example of international good practice in hydropower sustainability, according to an independent report by the accredited assessors of International Hydropower Association (IHA).

The 510 MW power station, owned and operated by NHPC Limited, was reviewed by a team of accredited assessors using the Hydropower Sustainability Assessment Protocol. The report has now been published and available online as  https://www.hydropower.org/news/indian-hydropower-project-an-example-of-good-practice-in-sustainability 

 

The assessment, the first of its kind in India, was conducted between January and June 2019 and involved two visits to the project area, with stakeholder interviews from 4-13 March. According to the report, Teesta-V met or exceeded international good practice across all 20 performance criteria. It met proven best practice in its management of asset reliability and efficiency, financial viability, project benefits, cultural heritage, public health, and erosion and sedimentation. Teesta-V is also the first hydropower project globally to publish results against new performance criteria covering its resilience to climate change and mitigation of carbon emissions, after the Hydropower Sustainability Assessment Protocol (HSAP) was expanded in scope in 2018.

 

The Hydropower Sustainability Assessment Protocol (HSAP) is the leading international tool for measuring the sustainability of hydropower projects, having been applied in more than 25 countries. It offers a way to benchmark the performance of a hydropower project against a comprehensive range of environmental, social, technical and governance criteria.

 

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 |    September 3, 2019 |   0 comment

टनकपुर पावर स्टेशन में हरेला पखवाड़ा का आयोजन

टनकपुर पावर स्टेशन में पावन पर्व “हरेला पखवाड़ा” का शुभारंभ 20 जूलाई 2019 को बड़े ही हर्षोल्लास के साथ किया गया। टनकपुर पावर स्टेशन द्वारा औषधीय उद्यान पर बनाई गई नवीनतम विवरणिका (brochure) का विमोचन किया गया। विवरणिका के द्वारा टनकपुर पावर स्टेशन के औषधीय उद्यान व परिसर में मौजूद पौधों के उपयोगिता की जानकारी दी गई है। इसके विमोचन का मुख्य उद्देश्य औषधीय पौधों के संवर्धन एवं इसकी उपयोगिता का प्रचार-प्रसार करना है जिससे कि प्राचीन चिकित्सा की विरासत को संरक्षित किया जा सके। हरेला पखवाड़ा के अंतर्गत आवासीय परिसर, बैराज परिसर, सिल्ट इजेक्टर, पावर हाउस के विभिन्न खाली स्थानों पर फलदार, औषधीय एवं सजावटी पौधों की 10 प्रजातियों के करीब 250 पौधों का रोपण किया गया। साथ ही साथ करीब 300 फलदार पौधों का वितरण भी स्थानीय लोगों मे किया गया जिससे आस-पास की हरियाली बनी रहे तथा लोगों में पौधारोपण के प्रति जागरूकता बढ़े। विभिन्न कार्यक्रम आयोजित करते हुए लोगों में पर्यावरण संरक्षण एवं संवर्धन के प्रति जागरूकता हेतु दिनांक 27.07.2019 को नुक्कड़ नाटक, लोकसंगीत व व्याखान का आयोजन किया गया। पर्यावरण संरक्षण पर व्याखान तथा बेथनी जीवन धारा, टनकपुर के कलाकारों द्वारा पर्यावरण संरक्षण पर नुक्कड़ नाटक, जागृति गीत, औषधीय पौधों की उपयोगिता, शुन्य कचरा, औषधीय पौधों द्वारा कीटनाशक दवा बनाने के तरीकों आदि विषयों पर लोगों को जागरूक किया गया। कार्यक्रम का संचालन करते हुए श्री मनोज कुमार कुशवाहा, व. प्रबन्धक (पर्यावरण) ने हरेला पखवाड़ा कार्यक्रम के अंतर्गत पर्यावरण संरक्षण एवं संवर्धन के लिए टनकपुर पावर स्टेशन के द्वारा चलाये जा रहे कार्यों की महत्ता एवं इसके उपयोगिता के बारे में संक्षिप्त जानकारी दी। एनएचपीसी के द्वारा किए जा रहे इन कार्यक्रमों से स्थानीय लोगों मे पर्यावरणीय जागरूकता के प्रति चेतना काफी बढ़ी है । टनकपुर पावर स्टेशन मे भी स्थानीय परम्परा, संस्कृति और पर्यावरण संरक्षण को बढ़ावा देने के उद्देश्य से इस पर्व को पौधरोपण उत्सव, पर्यावरणीय जागरूकता पखवाड़ा के रूप में मनाया गया।

 

 

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सलाल पावर स्टेशन में “अपना पेड़ महोत्सव” का आयोजन

दिनांक 25 जुलाई 2019 को सलाल पावर स्टेशन द्वारा ज्योतिपुरम आवासीय परिसर क्षेत्र को हरा भरा करने के उद्देश्य से “अपना पेड़ महोत्सव” का आयोजन किया गया। इस अवसर पर अधिकारियों व कर्मियों ने फायर स्टेशन परिसर, ज्योतिपुरम में आंवला और जामुन के लगभग 60 पौधे लगाकर इस अभियान को गति प्रदान की । वृक्षारोपण के लिए चुनी गई भूमि एक पूर्व निर्मित क्षेत्र थी, जिसे खुदाई करके पेड़-पौधे लगाने हेतु तैयार किया गया था। यह कार्यक्रम बारिश के मौसम के दौरान ज्योतिपुरम टाउनशिप परिसर में चल रहे वृक्षारोपण अभियान का हिस्सा था, जिसमें विभिन्न किस्मों जैसे आंवला, जामुन, अमरूद, नीम, फगोड़ा, बांस आदि के लगभग 500 पौधे निरंतर लगाए जा रहे हैं।

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 |    September 3, 2019 |   1 comment

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