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पर्यावरण वार्ता (अंक 8 )
भारत सरकार ने 2-अक्टूबर अर्थात महात्मा गांधी की एक सौ पचासवीं जयंती के अवसर से एकल प्रयोग प्लास्टिक के इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगाने का निर्णय लिया है। इस आलोक में प्लास्टिक का प्रयोग, उसकी उपादेयता, पर्यावरण पर प्रभाव तथा विकल्पों पर गंभीर विमर्श की आवश्यकता है। विश्व मे प्लास्टिक का वार्षिक उत्पादन तीन हजार-लाख टन से अधिक है, अर्थात वैश्विक अर्थव्यवस्था में प्लास्टिक का योगदान खरबों डॉलर का है। ऐसे में यह समझना कठिन नहीं है कि पर्यावरण का नुकसान अर्थशास्त्र के हिसाब-किताब में समृद्धि की तरह दर्ज किया जाता है। प्लाटिक कचरे से निजात पाने के अब तक जो भी प्रयास किए गए हैं वे कतिपय पंचायतों, नगरों, शहरों अथवा कुछ जागरूक देशों के निजी हैं, जबकि इस समस्या का निदान पूरे विश्व को एक साथ ही निकालना होगा। हमें सतत विकास की परिभाषा को सम्मुख रख कर यह विचार करना होगा कि आने वाली पीढ़ी के लिए हम प्लास्टिक से अटी धरती छोड़ जाना चाहते हैं अथवा हमारे पास समाधानों के लिए स्पष्ट दृष्टिकोण भी है? विचार करें कि क्यों पैकेजिंग, खानपान, शल्य चिकित्सा, स्वच्छता से जुड़े कार्यों/वस्तुओं के लिये प्लास्टिक पदार्थों का उपयोग अब भी युक्तिसंगत माना जाता है? हम क्यों यह विचार नहीं करते कि अल्पकालिक सुविधा लेने के बाद हम चिरजीवी पदार्थों को अपने पर्यावरण का विनाश करने के लिए धरती पर छोड़ देते हैं? हम जानबूझ कर आँख मूँद लेते हैं कि निपटान के समुचित उपायों एवं इसके लिए संसाधनों के अभाव में प्लास्टिक कचरा जो हम जानते-बूझते उत्पन्न कर रहे हैं वह पर्यावरण को सैकड़ों-हजारों वर्षों तक प्रदूषित करता रहेगा।
उत्पादन बंद करने का सबसे सकारात्मक मार्ग है प्लास्टिक का उचित विकल्प प्रस्तुत करना। ऐसा नहीं कि वर्तमान में प्लास्टिक के जो विकल्प सामने आए हैं वे प्रदूषणकारी नहीं हैं। मक्के से बने थैलों की इन दिनों बड़ी चर्चा है परंतु बीबीसी में प्रकाशित एक आलेख के अनुसार ये थैले नष्ट होने की प्रकिया में मीथेन गैस उत्पन्न करते हैं जो ग्लोबल वार्मिंग के लिहाज से सही नहीं है। इसी तरह अमरीका में कागज के बैग बहुत लोकप्रिय रहे हैं परंतु जानकारों का कहना है कि नष्ट होने की प्रक्रिया में ये कार्बन पैदा करते हैं। अर्थात ऐसे विकल्प तक पहुँचने का हमारा प्रयास अभी जारी रहना चाहिए जो पूर्णत: पर्यावरण मित्र सिद्ध हो सके। कुछ अच्छे विकल्प भी सामने आए हैं, उदाहरण के लिए ब्रिटेन की एक कंपनी एक खास तरह के प्लास्टिक बैग बनाती है जो अट्ठारह महीने के भीतर स्वत: नष्ट हो सकते हैं (स्त्रोत – बीबीसी), इसी तरह यूरोपीय आयोग ऐसे प्लास्टिक बैग शुरु करने पर विचार कर रहा है जो जैविक रूप से खुद नष्ट हो जाएं (स्त्रोत – इंडिया वाटर पोर्टल)। इसी कड़ी में प्लास्टिक बोतल का बहुता अच्छा विकल्प ले कर गुवाहाटी, आसाम के धृतिमान बोरा सामने आए हैं। उन्होनें बांस की लीकप्रूफ बोतलों का आविष्कार किया है जो पानी को न केवल देर तक ठंडा रखने में सक्षम है अपितु उसमें औषधिक गुणवत्ता का समावेश करने मे भी सक्षम है। प्लास्टिक पर पूर्ण प्रतिबंध की दिशा इसी तरह के नये, मौलिक तथा सकारात्मक प्रयासों से ही संभव है। प्लास्टिक मुक्त भारत ही महात्मा गाँधी के जीवन व शिक्षाओं का सच्चा अनुसरण सिद्ध होगा। आईये महात्मा के “सादा जीवन और उच्च विचार” को आत्मसात कराते हुए स्वच्छता के प्रति जागरूक हों, जागरूकता प्रसारित करें।
(हरीश कुमार)
मुख्य महाप्रबंधक (पर्यावरण एवं विविधता प्रबंधन)
Image source = https://www.civilhindipedia.com/blogs/blog_post/gandhiji-s-thinking-on-environment
Let health care reach all the new born and their mothers, this Gandhi Jayanti
image source = https://www.thehindu.com/children/messenger-of-peace/article22520662.ece
Odisha, along with some other states in our country occupies the distinction of being the worst performer states in terms of infant mortality, neo-natal mortality and maternal mortality. This report featured in one of the popular magazines must have compelled some of the thinkers of our times to scratch their heads as to what went wrong during these years after independence .Indian intelligentsia, has proved its mettle in many areas both at national and international level but news reports of this kind makes us think and rethink several times about our progress in real terms. In this context, it reminds me the words which once said by father of our nation Mahatma Gandhi that all our acts and actions shall be deemed fruitful only when they have benefited the lowest strata of our society. Now, as we are going to celebrate ‘Gandhi Jayanti’ the 150 th birthday of one of the rarest of rare personalities the world has ever seen. Mohandas Karamchand Gandhi, born on 2nd October 18 69 in Porbandar , Gujarat ; lawyer, anti-apartheid crusader, anti-colonial activist founder of non-violent movement all amalgamated into one , though popularly known for his profound contribution towards Indian freedom struggle , his ideals and ideas for an inclusive and healthy society seems to have been largely forgotten amidst speedy progress in science , technology and many such fields. Remembering Gandhi ji on his birthday with focus on improving on status of mortality, neo-natal mortality and maternal mortality in some of the poorly accessible areas of our country will be a befitting tribute to the mankind.
Of late, our country has witnessed many such cases of pregnant women being carried on shoulders, travelling miles on foot by good samaritans who volunteered their services for the betterment of the mankind. While such cases grabbed limelight in some newspapers and other media, has the ground reality changed for the better is something we all need to ponder and introspect with all serousnes in our command. News reports like one young doctor working in Odisha’s Maoist hit Malkangiri district carrying a woman post-delivery on a cot along with her husband for about 8 kilometres on foot to the nearest district hospital for treatment and several other such incidents have made all of us pause and think for a while. Unfortunately, things returned to normalcy in our inner world while for the outer world little has changed so far. Therefore, it is important to devise plans and formulate policies for making our world ‘medical care friendly’ for realising the dreams of our founding father, Gandhi ji. There is no denying the significant strides that our nation has made in the field of medicine and the recognition that India has got across the Globe.
Let there be attempts for a comprehensive health care facility developed immediately for such remote areas focussing on infant mortality, neo-natal mortality and maternal mortality .All our efforts in the field of medical research and its advancements thereto can be truly realised only when it reaches the poorest of the poors residing in areas where medical care is still a rarity. We have been remembering Mahatma Gandhi all along for his contributions towards freedom struggle now let us also remind ourselves for his pioneering vision and work for the down trodden. A non- violent movement could transform our country to an independent nation. Now, its time to orient ourselves in a fashion to declare freedom from shackles of such health complications arising primarily form poor medical facility in remote areas of our country.
Let the new borns and their mothers in such areas, have a lease of new life by providing them with the best possible medical facility.
– Ashis Kumar Dash
Deputy General Manager (Environment)
“It is health that is real wealth and not pieces of gold & silver” – Mahatma Gandhi
मावल्यान्नॉग : एशिया में स्वच्छतम एक भारतीय गाँव
एशिया का सबसे साफ-सुथरा गाँव भारत में है इस बात का गर्व किसे नहीं होगा? मेघों की धरती मेघालय के पूर्वी खासी हिल्स जिले में अवस्थित एक छोटा सा गाँव मावल्यान्नॉग अब एक पर्यटक स्थल में परिवर्तित हो गया है। जिस बात ने मुझे सर्वाधिक प्रभावित किया वह था किसी गाँव की स्वच्छता को देखने के लिये विकसित हुआ पर्यटन। पन्चानबे परिवारों का गाँव जिसकी कुल आबादी लगभग पाँच सौ व्यक्ति है, उन्होंने ऐसा क्या विशेष किया है जिसके कारण उन्हें एशिया के नक्शे पर महत्वपूर्ण स्थान हासिल हुआ। यह बात भी सु:खद है कि इस गाँव की एक बड़ी विशेषता मातृसत्तात्मक परम्परा तो है ही यहाँ का प्रत्येक व्यक्ति साक्षर भी है। गाँव में प्रवेश करने से पूर्व ही एक दृष्टि डालने पर बहुत सी बाते स्पष्ट हो जाती हैं। पहली यह कि परम्परा और आधुनिकता का बेहतर समायोजन किया गया है इसलिये सडक में निश्चित दूरी पर सौर ऊर्जा से चलने वाली लाईटें लगाई गयी हैं साथ ही प्रत्येक कुछ कदम पर बाँस के तिकोने आकार के टोकरे भी आपको लटके हुए मिलेंगे जिसे आप कूडादान कहते हुए एकबार हिचकेंगे अवश्य। इन कचरा-कूडा सहेजने के लिये लगायी गयी बाँस की टोकरियों ने गाँव की कलात्मक अभिरुचि को अभिव्यक्त किया है तथा सुन्दरता प्रदान की है।
भारतीय गाँव की अवधारणा में स्वच्छता को अधिक प्राथमिकता प्राप्त नहीं है। हम “गोरी तेरा गाँव बड़ा प्यारा” जैसे गीतों से झूम अवश्य उठते हैं किंतु मक्खियों से भिनभिनाते घरों, अनपढता और जनसंख्या के दबाव से जूझते परिवारों की घुटन को देख आह भर रह जाते हैं। आदर्श गाँव की अनेक संकल्पनायें हैं और वे केवल कोरी कल्पनायें बन कर अपकी कागजी-मगजमार योजनाओं की भेंट चढती हुई ही दिखाई पडती हैं। बहुत कम गाँव ऐसे हैं जहाँ स्कूल, चिकित्सालय, डाकघर या बैंक जैसी बुनियादी सुविधायें उनकी परिधि के भीतर ही उपलब्ध हों। शौचालयों पर चर्चा के इस दौर में किसी भी गाँव से हो कर गुजरती पक्की सडकों के दोनो ओर बिखरी गंदगी का साम्राज्य आमतौर पर देखा जा सकता है। जिस भारत को गाँवों का देश कहा जाता है वहाँ आप एक व्यवस्थित गाँव को तलाशते थक जायेंगे। मैं यह नहीं कहता कि अपवाद नहीं है, निजी प्रयासों अथवा सामूहिक दायित्वों के निर्वहन ने अनेक गाँवों की तकदीर और तस्वीर भी बदली है तथापि हम भारत को एक सुन्दर, साक्षर और स्वच्छ देश बनाने की दिशा में बहुत पीछे रह गये हैं।
मावल्यान्नॉग में बाँस के बने सुन्दर और नक्काशीदर घर हैं जहाँ जन-जीवन सामान्य दिखाई पडता है। ग्रामीण, पर्यटक आगमन के इतने आदी हो गये हैं कि उन्हें इस बात से कोई अंतर नहीं लगता कि लोग उन्हें अचरज से देख रहे हैं, उनकी जीवन शैली को समझने के कोशिश कर रहे है, उनकी तस्वीरें ले रहे हैं। अपितु मैने यहाँ के लोगों में इस बात का गर्व देखा कि वे विशिष्ठ हैं और उन्होंने जो अलग कर दिखाया है, आज उसका ही प्रतिसार प्राप्त हुआ है। गाँव को प्रदूषण से मुक्त रखने के लिये जैविक वस्तुओं का जीवन व कृषि में प्रयोग के साथ ही पॉलिथीन पर प्रतिबन्ध जैसे आवश्यक कदम यहाँ लोगों तथा प्रशासन ने सख्ती से उठाये हैं। चूंकि अजैविक कचरा कम से कम एकत्रित होता है अतत: यहाँ उपलब्ध कचरे को अलग करना व उनसे जैविक खाद प्राप्त करना भी सहज है, इससे बेहतर कचरा निस्तारण योजना क्या हो सकती है? यही कारण है कि लहलहाती खेती, खुश दिखते वृक्षों और हर घर के आगे करीने से लगाये गये पौधों में मुस्कुराते फूलों पर बैठी तितली स्वत: बताती है कि क्यों इस गाँव को भगवान का बग़ीचा कहा जाता है।
स्वच्छता अपने भीतर से पनपने वाली अवधारणा है। भारत को स्वच्छ रखने का लक्ष्य झाडू पकड कर सेल्फी खिंचाने से कदापि हासिल नहीं हो सकता अपितु इसके लिये मावल्यान्नॉग के ग्रामीणों जैसी सोच-समझ और सामूहिक कर्तव्य निर्वाह की दृष्टि होनी चाहिये। इस गाँव में ‘सरकार सफाई नहीं करती’, ‘स्वच्छता कर्मी नहीं आता’, ‘कचरा पडा है कोई नहीं उठाता’, ‘पड़ोसी मेरे घर अपना कूडा डाल जाता है’ जैसी शिकायतें नहीं हैं अपितु हर व्यक्ति स्वयं गाँव का स्वच्छताकर्मी है। मैने एक बूढे को देखा जो सड़क के किनारे की खरपतवार को उखाड रहा था और पूछने पर ज्ञात हुआ कि यह उसने अपने खाली समय का उपयोग किया है। गाँव का कोई भी व्यक्ति सड़क पर पडे कूडे-कचरे को अनदेखा नहीं करता अपितु स्वयं उसे उठा कर कूडेदान में डाल देना अपना कर्तव्य समझता है। मावल्यान्नॉग के लोगों की यही दृष्टि और सोच रही तो यह गाँव एक दिन निश्चित ही विश्व का सबसे सुन्दर गाँव बनेगा।
– राजीव रंजन प्रसाद, वरिष्ठ प्रबंधक(पर्यावरण)
“बेहतर साफ-सफाई से ही भारत के गांवों को आदर्श बनाया जा सकता है ” – महात्मा गांधी
पार्बती-III पावर स्टेशन, बिहाली में “पालीथीन प्रयोग के खिलाफ” स्वच्छता मोबाईल वैन का परिचालन एवं “पालीथीन: पर्यावरण का शत्रु” विषय पर चित्रकला प्रतियोगिता के साथ “पालिथीन मुक्त भारत” का संकल्प
“स्वच्छता ही सेवा” कार्यक्रम के अंतर्गत “पालीथीन प्रयोग से बचें” विषय पर सामान्य जन को जोड़ने के उद्देश्य से दिनांक 23-09-2019 को एनएचपीसी के पार्बती-III पावर स्टेशन, बिहाली से “स्वच्छता मोबाईल वैन” को रवाना किया गया। इसके माध्यम से पावर स्टेशन के आस-पास स्थित पंचायतों में पालिथीन के प्रयोग से होने वाले हानि को प्रभावशाली तरीकों से समझाया गया और पालिथीन के प्रयोग को रोकने की मुहिम चलाई गई । दिनांक 25-09-2019 को पार्बती-III में “स्वच्छता ही सेवा” कार्यक्रम के अंतर्गत पार्बती- III पावर स्टेशन द्वारा राजकीय वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय, सैन्ज के छात्रों के मध्य “पालीथीन : पर्यावरण का शत्रु” विषय पर “चित्रकला प्रतियोगिता ” का आयोजन किया गया जिसमें लगभग 50 बच्चों ने भाग लिया । दिनांक 26-09-2019 को राजकीय हाई-स्कूल, सारी में छात्रों व अध्यापक के साथ मिलकर “पालिथीन मुक्त भारत” के संकल्प को “स्वच्छता शपथ” के रूप में दिलवाया गया । साथ ही पालिथीन के प्रयोग से होने वाले नुकसान के बारे में छात्रों को अवगत कराते हुये पालिथीन के प्रयोग से बचने की अपील की गई ताकि आने वाले कल को संवार कर महात्मा गांधी के स्वच्छ व स्वस्थ राष्ट्र के निर्माण का स्वप्न साकार किया जा सके। कार्यक्रम का संयोजन श्री विशाल शर्मा, वरिष्ठ प्रबंधक पर्यावरण ने किया।
“यदि कोई व्यक्ति स्वच्छ नहीं है तो वह स्वस्थ नहीं रह सकता है” – महात्मा गांधी
स्वच्छता, स्वास्थ्य एवं पर्यावरण : टनकपुर पावर स्टेशन में “स्वच्छ भारत पखवाड़ा” का आयोजन
एनएचपीसी के टनकपुर स्थित पावर स्टेशन में दिनांक 16-31 अगस्त’2019 तक “स्वच्छता पखवाड़ा” के दौरान विभिन्न कार्यक्रमों का आयोजन किया गया। इन कार्यक्रमों के माध्यम से कर्मचारियों/अधिकारियों व उनके परिवारों, विद्यार्थियों और स्थानीय लोगों में स्वच्छता एवं पर्यावरण के प्रति जागरूकता पैदा किया गया ताकि आस-पास के वातावरण को स्वच्छ, सुंदर एवं स्वस्थ बनाने में सभी योगदान दे सकें। अधिकारियों एवं कर्मचारियों द्वारा पावर स्टेशन व आवासीय परिसर स्थित विभिन्न स्थलों जैसे खेल मैदान, अतिथि भवन, प्रशासनिक भवन आदि स्थानों में गहन स्वच्छता अभियान चलाया गया। एनएचपीसी केन्द्रीय विद्यालय -2, बनबसा में विद्यार्थियों को स्वच्छता के प्रति जागरूकता पैदा करने के उदेश्य से “स्वच्छता, स्वास्थ्य एवं पर्यावरण विषय” पर निबंध व स्लोगन प्रतियोगिता का आयोजन कर विजेताओं को पुरस्कृत किया गया।केन्द्रीय विद्यालय में विद्यार्थियों के बीच स्वच्छता के प्रति जागरूकता एवं पर्यावरण के प्रति जुड़ाव पैदा करने के उदेश्य से “स्वच्छता, स्वास्थ्य एवं पर्यावरण” विषय पर विद्यार्थियों के साथ संवाद भी स्थापित किया गया जिसमें विद्यार्थियों ने अपनी जिज्ञासाओं और बेहतरीन विचारों को उत्साहपूर्वक रखा। एनएचपीसी केन्द्रीय विद्यालय एवं एनएचपीसी नर्सरी विद्यालय परिसर में सफाई अभियान चलाया गया एवं प्रदूषण मुक्त स्वस्थ पर्यावरण के लिए वृक्षारोपण कार्यक्रम का आयोजन किया गया।
“राजनीतिक स्वतंत्रता से ज्यादा जरूरी स्वच्छता है” – महात्मा गांधी
पर्यावरण शब्दकोष (5)
Photograph Source : https://www.cree.com/about/sustainability/environment
क्र. | शब्द | अर्थ |
1 | अपरदन
(Erosion) |
अपरदन/कटाव एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा भूमि की सबसे ऊपरी सतह गुरुत्वाकर्षण बल या अन्य गतिशील कारकों जैसे हवा, पानी, बर्फ या जीवित जीवों द्वारा (जैव क्षरण के मामले में) क्षतिग्रस्त होकर अन्य स्थान पर भेज दी जाती है। यह एक आंतरिक प्राकृतिक प्रक्रिया है लेकिन कई स्थानों पर यह मानव द्वारा भूमि उपयोग संबंधी गलत प्रथाओं में वृद्धि के कारण होता है ,जैसे वनों की कटाई, निर्माण गतिविधि और सड़क या पगडंडी का निर्माण आदि। जल, अपरदन का सबसे आम कारक है क्योंकि पृथ्वी की सतह पर यह असीम मात्र में मौजूद है।
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2 | अवायवीय (Anaerobic) |
अवायवीय का अर्थ है “ऑक्सीजन के बिना”।मनुष्यों के विपरीत, अवायवीय जीवों/प्रक्रियाओं को जीवित रहने/कार्य करने के लिए ऑक्सीजन की आवश्यकता नहीं होती है। ये ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में जीवित, सक्रिय, घटित व विद्यमान रहते हैं।
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3 | अजैविक कारक (Abiotic Factor) |
पर्यावरण के ऐसे निर्जीव हिस्से जो अक्सर जीवित जीवों पर व्यापक प्रभाव डालते हैं, अजैविक करक कहलाते हैं जैसे-पानी, दृश्यमान प्रकाश , हवा, मिट्टी, तापमान इत्यादि। अजैविक कारक पर्यावरण में गैर-जीवित रासायनिक और भौतिक तत्व हैं जो जीवों के साथ-साथ पारिस्थितिक तंत्र को भी प्रभावित करते हैं। पारिस्थितिक तंत्र के हिस्से के रूप में ये कारक इसमें रहने वाली चीजों को प्रभावित करते हैं ।
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4 | अल नीनो
(El-nino) |
अल नीनो, वैश्विक प्रभाव के साथ मौसम के स्वरुप पर प्रशांत महासागर में उपस्थित एक जलवायु चक्र है। यह जलवायु चक्र तब शुरू होता है जब पश्चिमी उष्णकटिबंधीय प्रशांत महासागर में समुद्र की सतह का तापमान विस्तारित अवधि के लिए सामान्य स्तर से ऊपर बढ़ जाता है एवं गर्म पानी दक्षिण अमेरिका के तट की ओर भूमध्य रेखा के साथ पूर्व की ओर बढ़ जाता है। सामान्य रूप से, यह गर्म पानी इंडोनेशिया और फिलीपींस के पास अवस्थित होता है। एल नीनो के दौरान, प्रशांत क्षेत्र की सबसे गर्म पानी की सतह उत्तर-पश्चिमी दक्षिण अमेरिका के तट पर बनती है।व्यापारिक हवाएं और वातावरण भी अल नीनो से प्रभावित होती हैं।
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5 | उत्सर्जन
(Emission) |
तकनीकी रूप से, उत्सर्जन वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा वायुमंडल में अवयव निस्तारित किए जाते हैं। लेकिन ज्यादातर इसे हवा में छोड़ी जाने वाली प्रदूषित गैसों के तौर पर संदर्भित किया जाता है जैसे कि ग्रीनहाउस गैस या बिजली संयंत्रों और कारखानों से निकलने वाला धुआँ।
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6 | ऊर्जा पिरामिड
(Energy pyramid) |
ऊर्जा पिरामिड जिसे कभी-कभी पारिस्थितिक पिरामिड या उष्णकटिबंधीय पिरामिड भी कहा जाता है, एक समुदाय में ऊर्जा प्रवाह का एक चित्रमय मॉडल है। इसके विभिन्न स्तर जीवों के विभिन्न समूहों का प्रतिनिधित्व करते हैं जो एक खाद्य श्रृंखला हो सकती है। ऊर्जा का प्रवाह नीचे से ऊपर की ओर चलता है एवं धीरे-धीरे कम हो जाता है क्योंकि ऊर्जा का उपयोग प्रत्येक स्तर पर जीवों द्वारा किया जाता है।
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7 | ऊष्मीय द्वीप
(Heat island) |
शहरी क्षेत्र जैसे-जैसे विकसित होते हैं, उनका परिदृश्य बदलता जाता है। इमारतें, सड़कें और अन्य बुनियादी ढाँचे खुली भूमि और वनस्पति की जगह लेते हैं। वे स्थान जो कभी पारगम्य और नम थे, अभेद्य और शुष्क हो जाते हैं। इन परिवर्तनों के कारण शहरी क्षेत्र अपने ग्रामीण परिवेश की तुलना में गर्म होकर उच्च तापमान के “द्वीप” / ऊष्मीय द्वीप में तब्दील हो जाते हैं।ऊष्मीय द्वीप बनने के कई कारण हैं। जब घरों, दुकानों और औद्योगिक भवनों का निर्माण एक साथ किया जाता है, तो एक ऊष्मीय द्वीप बनने की संभावना हो सकती है। निर्माण सामग्री आमतौर पर गर्मी को अवशोषित करने में बहुत अच्छी होती है जिससे इमारतों के आसपास के क्षेत्र गर्म होकर ऊष्मीय द्वीप का निर्माण करते हैं ।
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8 | एजेंडा 21
(Agenda 21) |
एजेंडा 21 – संयुक्त राष्ट्र प्रणाली, सरकारों और प्रमुख समूहों के संगठनों द्वारा वैश्विक, राष्ट्रीय और स्थानीय स्तर पर कार्रवाई की एक व्यापक योजना है जिसके अंतर्गत हर वह क्षेत्र सम्मिलित है जहां पर्यावरण पर मानव द्वारा प्रभाव डाला जाता है।एजेंडा 21, पर्यावरण और विकास पर संयुक्त राष्ट्र के रियो शिखर सम्मेलन (जून 1992) से उत्पन्न प्रमुख दस्तावेजों में से एक है। यह एक व्यापक कार्ययोजना है जिसे संयुक्त राष्ट्र शिखर सम्मेलन द्वारा वैश्विक, राष्ट्रीय और स्थानीय स्तर पर संयुक्त राष्ट्र प्रणाली के संगठनों द्वारा लेने की सिफारिश की गई और 178 से अधिक सरकारों द्वारा अपनाया गया था।
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9 | ओजोन मंडल
(Ozonosphere) |
ऊपरी वायुमंडल की परत जहां अधिकांश वायुमंडलीय ओजोन गैस केंद्रित है, ओजोन मंडल कहलाती है। यह पृथ्वी के ऊपर लगभग 8 से 30 मील (12 से 48 किमी) पर अवस्थित है। यहाँ अधिकतम ओजोन सांद्रता लगभग 12 मील (19 किमी) की ऊंचाई तक होती है।इस क्षेत्र में ओजोन ऑक्सीजन अणुओं के फोटोलिसिस से उत्पन्न होता है और नाइट्रोजन, क्लोरीन, और हाइड्रोजन के ऑक्साइड से होने वाली प्रतिक्रियाओं से नष्ट हो जाता है। ओजोन के मजबूत यूवी विकिरण अवशोषण स्पेक्ट्रम के कारण ओजोन परत प्रभावी रूप से 290 nm से अधिक तरंग दैर्ध्य के यूवी विकिरण को पृथ्वी की सतह पर प्रवेश से रोकती है।
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10 |
औद्योगिक अपशिष्ट (Industrial waste)
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औद्योगिक संचालनों/कारखानों से उत्सर्जित ठोस, अर्ध-ठोस, तरल, गैसीय, अवांछित या अवशिष्ट पदार्थ (खतरनाक या बायोडिग्रेडेबल कचरे के बगैर) औद्योगिक अपशिष्ट कहा जाता है। यह जैवनिम्नीकरण या अजैवनिम्नीकरण दोनों प्रकार का होता है एवं पर्यावरण को नुकसान पहुंचाता है। |
– पूजा सुन्डी
सहायक प्रबंधक ( पर्या. )
“अपने अंदर की स्वच्छता पहली चीज है जिसे पढ़ाया जाना चाहिए। बाकी बातें इसके बाद होनी चाहिए।” – महात्मा गांधी
Frequently Asked Questions (FAQs) 3
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Greenhouse Gases
Q. What are GHGs?
A. A Greenhouse Gas (GHG) is a gas that absorbs infrared radiation (heat energy) emitted from the earth’s surface and reradiates it back to earth’s surface. Greenhouse gases cause the greenhouse effect. The primary greenhouse gases in Earth’s atmosphere are water vapor, carbon dioxide, methane, nitrous oxide and ozone.
Q. What are the main sources of GHGs?
A. The sources of GHGs are both natural and anthropogenic.
Natural sources:- Tectonic activities such as volcanic eruptions that operate at timescales of millions of years are a natural source of GHGs. Other natural processes such as respiration by living organisms, decay of vegetation, gases emitted from soil, wetland, and ocean sources and sinks, operate at timescales of hundreds to thousands of years.
Anthropogenic sources:- Human activities – especially burning/combustion of fossil-fuel, organic matter, farmland waste etc., – are responsible for steady increases in atmospheric concentrations of various greenhouse gases; especially carbon dioxide, methane, ozone, Chlorofluorocarbons (CFCs) and Hydrofluorocarbons.
Q. Why are GHGs important?
A. Greenhouse gases are important because they cause the greenhouse effect that enables maintenance of optimum temperature on planet earth for the survival of life on Earth. They play a crucial role in earth’s energy budget by absorbing sun’s energy and warming up the atmosphere thereby increasing the temperature of the planet. Without greenhouse effect the average temperature of Earth’s surface would be about -180c instead of the present average of 150c.
Q. What is greenhouse effect?
A. The heating up of Earth’s troposphere (the lowest level of atmosphere) caused by the presence of greenhouse gases is known as greenhouse effect. The atmosphere allows most of the visible light from the sun to pass through and reach earth’s surface. As sunlight heats up the earth’s surface, some of this energy is radiated back to space, as infrared radiation. This infrared radiation is absorbed by GHGs in the atmosphere raising its temperature.
Q. What is global warming?
A. The phenomenon of increase in average atmospheric temperatures near the surface of the earth over the past two centuries, due to increased emission of GHGs from various human activities is called global warming.
Q. What are the major industries that emit GHGs?
A. The top five industries that emit GHGs are (i) energy production (fossil fuel based power plants), (ii) agriculture forestry and other land use (AFOLU), (iii) transport, (iv) mining, manufacturing and construction and (v) Residential, commercial and institutional sectors.
Q. What is carbon sequestration?
A. A natural or artificial process by which carbon dioxide is removed from the atmosphere is called carbon sequestration. The long-term storage of carbon dioxide as compounds in solid or liquid state helps mitigate global warming. Afforestation or growing trees is a form of carbon sequestration.
[Contribution by: Anitha Joy, Manager (Environment)]
“हर किसी एक को अपना कूड़ा खुद साफ करना चाहिए” – महात्मा गांधी
स्नो ट्राउट- एक सामान्य परिचय
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परिचय:
स्नो ट्राउट (Snow Trout), साइप्रिनिडी (Cyprinidae) परिवार एवं साइजोथोरैक्सिन उप-परिवार से संबंधित मछलियों की एक प्रजाति है, जिनका भारतीय उपमहाद्वीप के हिमालयी और उप-हिमालयी क्षेत्रों में सर्वव्यापी वितरण है। ठंडे पानी वाले क्षेत्र की खाद्य मछलियों के समूह में इनका महत्वपूर्ण योगदान है। पूरी दुनिया में स्नो ट्राउट की वितरित 15 जेनेरा में से सौ से अधिक प्रजातियां शामिल हैं। भारतीय उप-हिमालयी क्षेत्र में स्नो ट्राउट की कुल सात जेनेरा में से लगभग 17 प्रजातियां ठंडे पानी के मत्स्य पालन में योगदान देती हैं। मछलियों के इस समूह के पास एक स्ट्रीम लाइन बॉडी, कम स्केल, निचले होंठ में मोडीफिकेशन, छोटी बार्बल्स या बार्बल्स की पूर्ण अनुपस्थिति और लंबी पूंछ (कौडल पेडंकल) है।
अधिकांश प्रजातियां कुल दो जेनेरा साइजोथोरैक्स और साइजोथोरैक्थिस से संबंधित हैं। इन दो जेनेरा को थूथन (snout) के आकार के आधार पर व्यापक रूप से विभेदित किया गया है। साइजोथोरैक्स के पास एक भोथरा थूथन (blunt snout) और सेक्टोरियल होंठ होता है, जबकि साइजोथोरैक्थिस के पास सक्टोरियल होंठ के बिना एक नुकीला थूथन (pointed snout) होता है। प्रमुख प्रजातियों में से साइजोथोरैक्स रिचार्डसोनी, साइजोथोरैक्स प्लागीस्टोमस, साइजोथोरैक्थिस एसोसिनस, साइजोथोरैक्थिस लांगिपिनीस, साइजोथोरैक्थिस प्लानिफ्रोन्स, साइजोथोरैक्थिस माइक्रोपोगोन, साइजोथोरैक्थिस कर्विफ्रॉन्स, साइजोथोरैक्थिस नासस, साइजोथोरैक्थिस हुगेली, साइजोथोरैक्थिस लैबियटस और साइजोथोरैक्थिस प्रोगास्टस है। अन्य जेनेरा जैसे शिज़ोपीज नाइजर, शिज़ोपीज माइक्रोप्रोगोन और साइजोपीगोप्सिस स्टॉलिकज़काई, डिप्टीकस मैकुलैटस, जिमनोसिप्रिस बिस्वासी और टिकोबार्बस कनिरोस्ट्रिस प्रजातियां भी आमतौर पर इस समूह में शामिल हैं।
जीव–विज्ञान:
मछलियों का यह समूह पूरी तरह से धीमी वृद्धि पैटर्न प्रदर्शित करती है और आम तौर पर दो से तीन वर्ष की आयु में परिपक्वता प्राप्त करती है। स्नो ट्राउट में कुछ अनुकूल पालन योग्य गुण होते हैं जैसेकि यह प्रकृति में यूरीथर्मल, कैप्टिव हालत के लिए उपयुक्त और पूरक फ़ीड स्वीकार करती है। हालांकि यह एक पसंदीदा खाद्य मछली है, परंतु इसकी धीमी वृद्धि गति और उचित फ़ीड विकसित करने से जुड़े समस्याओं के कारण इस प्रजाति के जलीय कृषि प्रथाओं को अभी भी पूरी तरह से अपनाया नहीं गया है।
वितरण:
भारतीय हिमालयन क्षेत्र में स्नो ट्राउट का अद्वितीय वितरण पैटर्न है, जैसे कि साइजोथोरैक्थिस एसोसिनस, साइजोथोरैक्थिस लांगिपिनीस, साइजोथोरैक्थिस प्लानिफ्रोन्स,साइजोथोरैक्थिस माइक्रोपोगोन, साइजोथोरैक्थिस कर्विफ्रॉन्स और साइजोथोरैक्थिस लैबियटस कश्मीर और लद्दाख क्षेत्र के लिए स्थानिक है। हालांकि हिमालयन क्षेत्र में साइजोथोरैक्थिस प्रोगास्टस की व्यापक उपस्थिति दर्ज है लेकिन फिर भी पूर्वी क्षेत्रों में इनका वितरण सीमित पाया गया है। साइजोथोरैक्स रिचार्डसोनी और साइजोथोरैक्स प्लागीस्टोमस हिमालय की फुट हिल्स एवं साथ वाले स्ट्रीम में पाए जाते हैं। विभिन्न प्रजातियों की अधिकतम लंबाई और वजन क्रमश: 25-60 सेमी और 1.5-5.0 किलो तक रिपोर्ट किया गया है।
गंगा नदी में स्नो ट्राउट की स्थिति: चूंकि स्नो ट्राउट स्वच्छ,ठंड और प्रदूषण रहित पानी में रहती है अतः गंगा नदी की प्रमुख धारा (भागीरथी नदी) में गंगाणी और देवप्रयाग के बीच एवं इसकी महत्वपूर्ण सहायक अलकनंदा नदी में विष्णुप्रयाग के डाउनस्ट्रीम से देवप्रयाग तक सीमित पायी गई है। स्नो ट्राउट खाद्य श्रृंखला में लगभग एक शीर्ष उपभोक्ता की भूमिका अदा करती है। इसके आधिपत्य (predominance) और आकार के कारण, इन्हें विस्तार (reach) में सबसे महत्वपूर्ण मूल तत्व (keystone) प्रजाति के रूप में वर्गीकृत किया जाता है जो अन्य प्रजातियों के साथ-साथ पारिस्थितिकी तंत्र के कार्य को भी नियंत्रित करती है।
प्रवासन एवं प्रजनन:
ये प्रायः सर्दियों के महीनों के दौरान प्रवासन करती है। जब ग्रेटर हिमालयी पानी का तापमान हिमांक बिन्दु के निकट पहुंच जाता है, तब इन्हें अंडे देने के लिए उपयुक्त स्थान की खोज में झरना आधारित धाराओं की तरफ नीचे की ओर प्रवासन करना पड़ता है। इनको अंडे देने के लिए अनुकूल तापमान 18-21.5 डिग्री सेल्सियस है। स्नो ट्राउट पोटामोड्रोमस प्रकृति की है, जो जुलाई-अगस्त महीने में प्रजनन के लिए धाराओं के निचले हिस्सों तक पहुंच जाती है और अगस्त-अक्टूबर महीनों के दौरान अंडे देती है। ये नदियों के किनारे छिछले पानी (30-60 सेमी गहराई) इलाकों में जहाँ बजरी सतह के साथ साफ पानी होता है, वहाँ अंडे देती है, जिसके हैचिंग में 50-55 घंटों का समय लगता है। ये 45 दिनों में 18-20 मिमी (फ्राई चरण) तक बढ़ जाती हैं। ये खाने और परिपक्व होने के लिए पूल लौटने से पहले कुछ समय के लिए हैचिंग क्षेत्र में ही रहती हैं।
इस समूह के मछलियों की अंडे देने (fecundity) की औसत संख्या 10,000-40,000 प्रति किलोग्राम वजन के बीच है। साइजोथोरैक्स रिचार्डसोनी की प्रति किलो वजन, कुल अंडे देने (fecundity) की संख्या 20,000-25,000 है। इनका स्पौनिंग क्षेत्र प्रायः बहुत ही मंद जल प्रवाह के साथ छिछले साफ पानी,रेतीले और बजरी तलहटी के रूप में देखा जाता है। विभिन्न प्रजातियों में स्पौनिंग सीजन भिन्न-भिन्न होता है, जो कि विभिन्न ऊंचाइयों के तापीय व्यवस्था (thermal regime) पर निर्भर करता है। वर्ष के विभिन्न महीनों में समुद्र तल से विभिन्न ऊंचाईयों पर इन मछलियों को 18.0-21.5 डिग्री सेल्सियस के पानी के तापमान पर स्पौनींग करते पाया गया है। यह देखा गया है कि साइजोथोरैक्स रिचार्डसोनी और साइजोथोरैक्स प्लागीस्टोमस गर्मियों की शुरुआत में प्रजनन करती हैं जबकि शिज़ोपीज नाइजर के लिए सबसे ज़्यादा प्रजनन का मौसम फरवरी के आखिरी सप्ताह से अप्रैल के मध्य तक रहता है जबकि कश्मीर में साइजोथोरैक्थिस कर्विफ्रॉन्स जून महीने में अधिकतम प्रजनन के साथ मई से जुलाई तक प्रजनन करती है।
कृत्रिम प्रजनन:
नब्बे के दशक के दरम्यान ही कुमाऊं में फील्ड सेंटर,आईसीएआर-डीसीएफआर, चिरापनी, चंपावत में साइजोथोरैक्स रिचार्डसोनी को प्रजनन कराकर सफलता हासिल की गई थी। सिंथेटिक हार्मोन का उपयोग करके कुछ स्नो ट्राउट प्रजातियों (साइजोथोरैक्स रिचार्डसोनी, शिज़ोपीज नाइजर) की प्रेरित प्रजनन कारवाई गई थी। भारत में साइजोथोरैक्स रिचार्डसोनी, साइजोथोरैक्थिस एसोसिनस, शिज़ोपीज नाइजर, शिज़ोपीज माइक्रोप्रोगोन,साइजोथोरैक्थिस लांगिपिनीस,साइजोथोरैक्थिस कर्विफ्रॉन्स का वाइल्ड स्टॉक से बीज उत्पादन की शुरुआती सफलता कश्मीर में सन 1980 के दरम्यान ही मिली थी, परंतु फार्म में विकसित ब्रूड स्टॉक का बीज उत्पादन का व्यवहार्य तकनीक (viable technology) का विकास अभी तक आरंभिक अवस्था में ही है।
सहगल (1974) ने साइजोथोरैक्थिस प्लानिफ्रोन्स, साइजोथोरैक्थिस कर्विफ्रॉन्स और साइजोथोरैक्स प्लागीस्टोमस से अंडों के संग्रह और कृत्रिम निषेचन के साथ प्रयोग शुरू किए थे। ये तीनों मछलियाँ झील वूलर से बहने वाली दो धाराओं में अंडे देती हैं। इसके बाद,हिमाचल प्रदेश की कई धाराओं से पकड़े गए परिपक्व मछलियों का उपयोग करके साइजोथोरैक्स प्लागीस्टोमस के अंडे इकट्ठे किए गए एवं पोस्ट-लार्वा तथा फ्राई तक सफलतापूर्वक बढ़ाया गया। डल झील से शिज़ोपीज नाइजर के अंडे इकट्ठे किए गए, जिसे कृत्रिम रूप से निषेचित करवाकर 10-40% तक की हेचिंग दर प्राप्त की गई। साइजोथोरैक्थिस एसोसिनस का चलने वाले पानी प्रणाली (flow through system) में प्रेरित प्रजनन, कृत्रिम निषेचन एवं इंक्यूबेशन के परिणामस्वरूप 30-55% संचयी हैचिंग दर प्राप्त किया गया। उसके आगे, कृत्रिम फीड पर साइजोथोरैक्थिस एसोसिनस के फ्राई और फिंगरलिंग्स आकार तक बढ़ाने के लिए कुछ सफलता मिली। नदियों और झीलों में रिलीज के लिए तैयार एक पूरी तरह से जीवक्षम फिंगरलिंग चरण प्राप्त करने के लिए अभी भी साइजोथोरैसिन बीज उत्पादन पर काम किया जाना जारी है। इस प्रजाति का हाइपोफाइजेशन तकनीक द्वारा प्रेरित प्रजनन कराने में अभी तक सफलता हासिल नहीं हुई है।
साइजोथोरैक्स रिचार्डसोनी का आकृति विश्लेषण: स्नो ट्राउट प्रजाति की सभी मछलियों में साइजोथोरैक्स रिचार्डसोनी का विशिष्ठ स्थान है। इसको लोकप्रिय रूप में स्नो ट्राउट एवं एसेला के नाम से भी जाना जाता है। यह मछली 60 सेमी के अधिकतम आकार तक पहुँच जाती है। हालांकि ज्यादातर मछलियाँ 20-25.5 सेमी के बीच होती है। यह 15-20 सेमी (100 ग्राम) प्रति वर्ष की दर से बढ़ती है। साइजोथोरैक्स रिचार्डसोनी का मुंह वेंट्रली तिरछा, निचले होंठ के साथ एक मुक्त पिछला किनारा (free posterior edge) होता है, जो चिपकने वाले चूसक (adhesive sucker) के रूप में कार्य करता है। निचले होंठ का भीतरी हिस्सा नरम हड्डी (cartilage) से कवर किया रहता है। स्नो ट्राउट का सिर पतला होता है तथा इनका विस्तारित शरीर 28.4 मीटर/सेकेंड के मजबूत प्रवाह का प्रतिरोध करने के लिए सुव्यवस्थित होता है। इनका शरीर छोटे सिलवरी साइक्लोईड स्केल से एवं पेट बड़े भूरे पपड़ी (scale) से ढका हुआ होता है। थूथन (snout) पर चार छोटे-छोटे बार्बल्स होते हैं।
साइजोथोरैक्स रिचार्डसोनी का आवास: स्नो ट्राउट 7.2-22 डिग्री सेल्सियस के बीच ठंडे पानी को पसंद करती है। यह डिमर्सल, फाइटोफैगस और पोटामोड्रोमस प्रवृति की होती है। वयस्क मछलियाँ पूल (13 मीटर गहराई) और रैपिड्स पसंद करते हैं। ये पत्थरों और परिपक्व कोबल्स जो स्लिमी एल्गल सामग्री से ढका रहता है, को सबस्ट्रैटम के रूप में पसंद करते हैं।
साइजोथोरैक्स रिचार्डसोनी का वितरण:
स्नो ट्राउट की विभिन्न प्रजातियों में से, स्थानीय रूप से ‘एसेला’ के रूप में जानी जाने वाली साइजोथोरैक्स रिचार्डसोनी का भारतीय हिमालयन क्षेत्र में व्यापक रूप से वितरण है। यह भारतीय हिमालयन क्षेत्र में उत्तर-पश्चिम में लद्दाख से पूर्व में सादिया तक विस्तृत है। हालांकि गंगा नदी बेसिन में यह हिमालयी और उप हिमालयी क्षेत्रों में जम्मू-कश्मीर से नैनीताल तक नदियों, तालाबों और झीलों में वितरित है। यह प्रजाति ग्रेटर और लेसर हिमालयन क्षेत्र में स्नो-मेल्ट और ग्लेशियर-फेड वाली धाराओं का एक इनहैबीटैंट है। हिमालयन पानी में इनका मत्स्यपालन या तो निर्वाह (subsistence) के रूप में या मनोरंजक मात्स्यिकी (recreational fishery) के रूप में विद्धमान है। चूंकि पर्वत धाराएं ज्यादा मछली उत्पादन का समर्थन नहीं करती हैं, इसलिए इनका वाणिज्यिक मत्स्य पालन काफी सीमित है। अपलैंड नदी प्रणाली में अकेले यह प्रजाति कुल मछली पकड़ का 60-70% योगदान देती है। ये ज्यादातर कश्मीर से लेकर उत्तराखंड तक इंडस और गंगा नदी प्रणाली की विभिन्न धाराओं में बहुतायत संख्या में पकड़ी गयी हैं।
साइजोथोरैक्स रिचार्डसोनी की फीडिंग: स्नो ट्राउट की खाने की आदत काफी हद तक शाकाहारी है और ये ज्यादातर पेरिफाईटोनिक फीडर हैं। चूंकि यह मछली ठेठ रूप से एक बेंथिक पोषक भी है, इसलिए इनका मुंह नदियों के तलहटी सतह पर चट्टानों, पत्थरों आदि पर बढ़ते माइक्रोबायोटा को ग्रहण करने के लिए अनुकूल होता है।
संरक्षण की आवश्यकता एवं उपाय:
भारतीय नदियों और पहाड़ी धाराओं में स्नो ट्राउट मछली की प्राकृतिक आबादी में मात्रात्मक और गुणात्मक गिरावट आई है। ठंडे पानी के मत्स्यिकी के लिए प्रमुख खतरों में से तेजी से पर्यावरणीय पतन (rapid environmental degradation), नदी बांधीकरण के कारण उपयुक्त आवासों की कमी, मछली पकड़ने की अत्यधिक और विनाशकारी विधि, इत्यादि शामिल है। यह सामान्य रूप से संशाधनों और विशेष रूप से मछली संशाधनों पर भारी दबाव पैदा कर रहा है। विभिन्न नदियों और हिमालयन नदियों में इनकी संख्या में गिरावट की प्रवृत्ति के कारण,आईयूसीएन द्वारा साइजोथोरैक्स रिचार्डसोनी को IUCN के रेड लिस्ट में अतिसंवेदन-शील (Vulnerable) प्रजाति के रूप में सूचीबद्ध किया गया है।
साइजोथोरैसिन का पालन अभी तक अपने प्रयोगात्मक चरण में ही है। कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि विदेशी कॉमन कार्प की भारतीय नदियों में समावेशन के कारण भी कश्मीर घाटी के झीलों के लौकिक वातावरण में साइजोथोरैसिन मत्स्यपालन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। अतः इसे सतत आधार (sustainable basis) पर उपयोग के अलावा संरक्षण करने की भी विशेष आवश्यकता है। नदी में धारा प्रवाह के पैटर्न में परिवर्तन और कई जलविद्युत जलाशयों और मोड़ों के अस्तित्व के कारण,अनुदैर्ध्य और पार्श्व संयोजकता पर प्रभाव पड़ने के परिणाम स्वरूप स्नो ट्राउट का प्रवासन मार्ग और प्रजनन चक्र प्रभावित होता है। तदनुसार बांध/बैराज के कारण ट्राउट के प्रवासन में आ रही बाधा को दूर करने के लिए कई कम ऊँचाई वाले बाँधों में मछली पास/ मछली सीढ़ी का निर्माण भी किया गया है। भारत के कई राज्यों जैसे पंजाब में माधोपुर बैराज (रावी नदी), रोपर बैराज एवं फिरोजपुर बैराज (सतलज नदी), उत्तराखंड में बनबस्सा बैराज (शारदा नदी), हिमाचल प्रदेश में लारजी बैराज (व्यास नदी), जम्मू & कश्मीर, उत्तराखंड एवं पश्चिम बंगाल में एनएचपीसी द्वारा बनवाए गए क्रमशः उरी-I बैराज (झेलम नदी), टनकपुर बैराज (शारदा नदी) एवं तीस्ता लो डैम –III बैराज (तीस्ता नदी), तीस्ता लो डैम –IV बैराज (तीस्ता नदी) में फिश-लैडर का निर्माण किया गया है।
इसके अतिरिक्त एनएचपीसी के विभिन्न जल-विद्युत परियोजनाओं जैसे हिमाचल प्रदेश ,में स्थित चमेरा –II , चमेरा –III, पार्बती –II एवं पार्बती –III पावर स्टेशन ; जम्मू & कश्मीर में स्थित चुटक, निम्मो बाजगो, सेवा-II एवं उरी-II पावर स्टेशन तथा सिक्किम में स्थित तीस्ता-V पावर स्टेशन में मत्स्य प्रबंधन योजना (Fisheries Management Plan) के अंतर्गत फिश हैचरी/ फिश फार्म की स्थापना की गई है, जहाँ कृत्रिम प्रजनन की सहायता से मछलियों का बीज उत्पादन किया जाता है। इन फिश हैचरी/ फिश फार्म का मुख्य उद्देश्य नदी घाटियों का पारिस्थितीक विकास एवं आसपास के क्षेत्र के किसानों को तकनीकी सुविधाएँ मुहैया करा कर एवं मछलियों के बीज (Fry/ Fingerling) उपलब्ध करा कर उन्हें इस क्षेत्र में समृद्ध बनाना है। एनएचपीसी द्वारा रेंचिंग कार्यक्रम के तहत नदी घाटियों के पारिस्थितिक विकास के लिए मछलियों के अंगुलिकाओं (fingerlings) को नदी में स्टौक भी किया जाता है । इसके अलावा बांध के अनुप्रवाह (downstream) में पर्यावरणीय प्रवाह (environmental flow) का प्रावधान रखा जाता है, जिससे स्नो ट्राउट के साथ-साथ अन्य मछलियों के मुक्त आवागमन एवं प्रजनन के लिए पानी की उपयुक्त आवश्यकताओं को पूरा किया जा सके।
– डॉ. एस. के. बाजपेयी, उप महाप्रबंधक (पर्यावरण)
– मनीष कुमार, सहायक प्रबंधक (मत्स्य)
(राजभाषा ज्योति, अंक 34, अक्टूबर’18 – मार्च,19 में प्रकाशित)
“नदियों को साफ रखकर हम अपनी सभ्यता को जिंदा रख सकते हैं” – महात्मा गांधी
NHPC associated with Climate Force : Arctic 2019
International Arctic Expedition : “Leadership on the edge”
Generating awareness on Climate Change
NHPC was recently associated with an International Expedition to the Arctic region titled ‘Leadership on the edge’. The expedition was organized by 2041 Foundation, an organization founded by polar explorer, environmental leader and public speaker Robert Swan, OBE, the first person in history to walk to both the North and South Poles. This prestigious international expedition comprised of over 80 explorers and was linked with crucial global environmental issues like climate change and environmental sustainability. The expedition had aimed towards inspiring individuals to promote a sustainable future and create resilient communities to act on climate change issues.
NHPC sponsored the participation of Ms Manu Panwar, a 2014 IRS Officer, currently posted as Deputy Director at Directorate of Revenue Intelligence. NHPC’s core areas and objective is to develop hydropower projects in an environmentally benign and socially responsive manner after integrating environmental considerations into planning, execution and operation of projects. The spirit of the expedition was in line with NHPC’s commitment towards environment and was an ideal platform for showcasing NHPC on a global platform.
“What we are doing to the forests of the world is but a mirror reflection of what we are doing to ourselves and to one another” – Mahatma Gandhi
पर्यावरण वार्ता (अंक 9 )
पर्यावरण एक व्यापक विषय है, जिसका महत्वपूर्ण घटक है – अपशिष्ट प्रबंधन। आज हम उस अपशिष्ट की बात करते हैं, जिसे बचाया जा सकता था, उपयोग में लाया जा सकता था और ऐसा करते हुए हम देश की गरीबी और भुखमरी जैसी बडी समस्याओं का समाधान प्रदान करने की दिशा में अग्रसर हो सकते थे। क्या आपने कभी सोचा है कि होटलों-रेस्टॉरेंट मे खाना खाते हुए, शादी-ब्याह आदि अवसरों पर अथवा बैठक पार्टी में हम स्वयं कितना भोजन बरबाद करते हैं? इन अवसरों पर प्राय: लोग आवश्यकता से अधिक अपनी थाली में परोस लेते हैं, उसे पूरा खा नहीं पाते, अंतत: बड़ी मात्रा में खाना फेंक दिया जाता है। अन्न की यह बरबादी कचरे का रूप धारण कर लेती है, जो सड़ती गलती हुई बीमारियाँ फैलाने का कारक भी बनती हैं।
दुनियाभर में प्रति वर्ष जितना भोजन तैयार होता है उसका एक तिहाई बर्बाद चला जाता है। भारत में प्रतिवर्ष 25.1 करोड़ टन खाद्यान्न का उत्पादन होता है लेकिन प्रत्येक चौथा भारतीय भूखा सोता है। इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में प्रतिवर्ष 23 करोड़ टन दाल, 12 करोड़ टन फल और 21 करोड़ टन सब्जियां वितरण प्रणाली में खामियों के कारण खराब हो जाती हैं। विश्व खाद्य संगठन के मुताबिक भारत में हर साल 50 हजार करोड़ रुपए का भोजन बर्बाद हो जाता है, जो कि देश के खाद्य उत्पादन का चालीस प्रतिशत है। देश पानी की कमी से जूझ रहा है, अपव्यय किए जाने वाले इस भोजन को पैदा करने में जो पानी व्यर्थ होता है उससे दस करोड़ लोगों की प्यास बुझाई जा सकती है।
सुखद है कि समस्या की पहचान के साथ ही इसपर अनेक स्तरों पर काम आरम्भ हो गया है। विश्वभर में होने वाली भोजन की बर्बादी को रोकने के लिए विश्व खाद्य एवं कृषि संगठन, अंतरराष्ट्रीय कृषि विकास कोष और विश्व खाद्य कार्यक्रम ने एकजुट होकर अनेक परियोजनाएं संचालित की हैं। भारत में फीडिंग जैसी स्वयंसेवी संस्थाएं आगे आई हैं, जिन्होंने विभिन्न पार्टियों-समारोहों आदि में बचे हुए स्वच्छ अन्न को वैज्ञानिक ढंग से रेफ्रीजरेटेड पात्रों में एकत्रित करके जरूरतमंदों तक पहुंचाने की अच्छी पहल की है। इसी तरह मुंबई में डिब्बेवालों ने भी रोटी बैंक की शुरुआत की है, जिसमें बचे हुए खाने को गरीब भूखे लोगों तक पहुंचाया जाता है। देश भर में अर्थव्यवस्था की अभिवृद्धि पर सेमीनार होते हैं, गरीबों के जीवनस्तर को उपर उठाने की बातें होती हैं लेकिन खाने की बर्बादी रोकने जैसा छोटा सा कदम भी गरीबी और भुखमरी की रोकथाम हो सकता है। यह कदम पर्यावरण सुधार की दिशा भी प्रशस्त करेगा।
हरीश कुमार
मुख्य महाप्रबंधक (पर्यावरण एवं विविधता प्रबंधन)
Image source = https://www.agri-pulse.com/articles/10796-us-china-trade-aggression-threatens-rice-deal
PHOTOGRAPH OF THE WEEK
For Parbati-III Power Station, the minimum environment flow prescribed as per norms (15% of the lean season flow) is 1.151 cumecs and the same is stated in the Environment Clearance accorded by MoEF&CC. Parbati-III PS has installed two pipes in the Dam body to maintain E-Flow from the Dam throughout the year. Power Station is releasing the requisite discharge of 1.151 cumecs from these pipes continuously throughout the year which is reflected on the HPSPCB site on real time basis through the web portal. This data is reflected on real time basis on the site.
– Vishal Sharma, Senior Manager (Environment)
Parbati -III Power Station
Action on Climate Change : NHPC’s initiatives
Climate change has over the years emerged as a major threat for the sustenance of mankind on earth. Rapid pace of industrialization and urbanization, coupled with increased dependence on natural resources, have led to overexploitation of these resources, which with time poses a serious warning for the world. India is facing major challenges of sustaining its rapid economic growth while dealing with the global threat of climate change. Although, meaningful initiatives have been taken in various sectors to meet the challenges posed, however a lot needs to be done. NHPC believes in development in harmony with nature. Various green initiatives have been taken by NHPC to offset carbon footprint. Few of them are highlighted below:
Solar Energy:
NHPC has commissioned a 50 MW Solar Power Plant constructed in Theni and Dindigul District in Tamil Naidu in March 2018. The power is harnessed through Solar photovoltaic crystalline technology with minimum annual generation of 105.96 MU.
Work of 10 MW Floating Solar Power project in West Kallad District, Kerala has been awarded in September 2019. Mobilization work is in progress.
Rooftop Solar Plants with aggregate capacity of 2495 kWp has been installed at various power stations/projects of NHPC and roof top solar power projects with aggregate capacity of 1589 kWp at various locations of the Company is in EPC tender stage.
1.00 MWp Solar Power Plant rooftop at different buildings of NHPC Residential Complex, Sector-41, Faridabad has been installed. The Project was sanctioned by MNRE under “Achievement Linked Incentive Scheme for Govt. Sector” .The total cost of the project is ₹6.13 Crore ( including cost of Operation and Maintenance (O&M) for 05 years after SITC) with Minimum Guaranteed Generation of 16,65,000 KWh in 1st Year. Presently, the plant is running in testing mode by switching on and off of different inverters of different capacities at a time.
Wind Power
A Wind Power Project of installed capacity of 50 MW has been setup by NHPC in Jaisalmer district, Rajasthan and commercial generation started from October 2016. The total project generation started from October 2016. The total project generation since commissioning is 190 MU till 31.10.2019.
Green Building
Neer Shakti Sadan at NHPC Office Complex, Faridabad has been awarded the Four Star GRIHA Rating (Final) by the GRIHA(Green Rating for Integrated Habitat Assessment) Council on 10th June 2019. Earlier, Four Star GRIHA Rating (Provisional) was awarded to the project on May 26, 2016. GRIHA is a joint initiative of Ministry of New and Renewable Energy (MNRE), Govt. of India and The Energy and Resources Institute (TERI). This building has been awarded 82.11% (78/95 Points) for attempting 34- Criterion. Some of these criterion are meant for optimize building design to reduce conventional energy demand, optimize energy performance of building within specified comfort limits, renewable energy utilization, reduce landscape water demand, utilization of fly ash in building structures, water recycle and reuse etc.
Clean Development mechanism projects
Two hydropower projects in Union Territory of J&K namely Chutak and Nimmo Bazgo have been registered by CDM Executive Board of UNFCCC. Verification of these projects are being undertaken for generation of CER (Certified Emission Reduction) credits.
NHPC has already registered its Teesta-V (510 MW) in Sikkim, Parbati-II (800MW) & Parbati-III(520MW) in Himachal Pradesh, Teesta Low Dam IV (160 MW) in West Bengal and Uri-II (240 MW) Power Station in Union Territory of J&K under Voluntary Carbon Standard (VCS) and these power stations have already generated more than 10 million VCUs (Voluntary Carbon Units). One VCU is equivalent to reduction of 1 metric tonne of CO2.
E-Mobility
NHPC has signed MOU with Energy Efficiency Services Limited (EESL), a JV of PSUs under the Ministry of Power on 31.01.2019 for deployment of E-Cars on lease basis along with charging facilities and training. Two nos. of E-cars flagged off on 18.03.2019 are in use in NHPC office, Faridabad.
-Gaurav Kumar, Deputy General Manager (Environment)
-Kumar Manish, Senior Manager (Environment)
राष्ट्रीय हरित अधिकरण (एनजीटी) : एक परिचय
Image Source : https://ngtonline.nic.in/newsite/
पृष्ठभूमि :
आर्थिक एवं औद्योगिक विकास की प्रक्रिया के फलस्वरूप विभिन्न प्रकार की पर्यावरण संबंधी समस्याएँ भी उठ खड़ी होती है जो कि वर्तमान में मानवीय जीवन के साथ-साथ समस्त पर्यावरण के लिये भी खतरा बनती जा रही है। पर्यावरणीय समस्याओं का एक जरूरी पहलू यह भी है कि उनका प्रभाव केवल स्रोत के क्षेत्र तक ही सीमित नहीं रहता बल्कि इसका प्रभाव दूर-दूर तक के क्षेत्रों तक फैल जाता है। पर्यावरण के दुरुपयोग और अतिक्रमण से बचाव के लिये प्रशासनिक, वैज्ञानिक एवं तकनीकी उपायों के साथ समय-समय पर प्रभावशाली कानूनों की आवश्यकता भी महसूस की जाती रही है। अतः इस प्रकार की समस्याओं के निवारण के लिये पर्यावरण संबंधी कानून न केवल राष्ट्रीय स्तर पर, बल्कि अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर भी जरूरी है।
इस क्रम में वर्ष 1992 में रियो में हुए यूनाइटेड नेशंस कॉन्फ्रेंस ऑन एन्वॉयरनमेंट एण्ड डेवलपमेन्ट में अन्तरराष्ट्रीय सहमति बनने के बाद से ही भारत में भी एक ऐसे संवैधानिक संस्था व कानून के निर्माण की जरुरत महसूस की जाने लगी थी। इस बात की भी आवश्यकता अनुभव की जाने लगी कि देश में एक ऐसा कानून हो जिसके दायरे में देश में लागू पर्यावरण, जल, जंगल, वायु और जैवविवधता के सभी नियम-कानून आ सके । इसी उद्देश्य से भारत के संविधान में 1976 में संशोधनों के द्वारा दो महत्त्वपूर्ण अनुच्छेद 48 (ए) तथा 51 (ए) जोड़े गए। अनुच्छेद 48 (ए) राज्य सरकार को निर्देश देता है कि वह पर्यावरण की सुरक्षा और सुधार सुनिश्चित करने के साथ-साथ देश के वनों और वन-जीवों की रक्षा करे। अनुच्छेद 51 (ए) बताता है कि नागरिकों का कर्तव्य है कि वह पर्यावरण की रक्षा करें, इसका संवर्धन करें तथा सभी जीवधारियों के प्रति दया का भाव रखें।
पर्यावरण संबंधी कानून की व्यापक आवश्यक्ता को ध्यान में रखते हुए केंद्र सरकार द्वारा पारित “राष्ट्रीय हरित अधिकरण अधिनियम 2010” के तहत दिनांक 18 अक्टूबर, 2010 को राष्ट्रीय हरित अधिकरण (एनजीटी) की स्थापना की गई।
राष्ट्रीय हरित अधिकरण एवं संरचना:
राष्ट्रीय हरित अधिकरण एक संवैधानिक संस्था है। इसके दायरे में देश में लागू पर्यावरण, जल, जंगल, वायु और जैवविवधता के सभी नियम-कानून आते हैं। उपरोक्त अधिनियम का उद्देश्य, पर्यावरण संरक्षण, वनों के संरक्षण से संबंधित मामलों के प्रभावी और तेज़ी से निपटान के लिए एक विशेष मंच प्रदान करना है। राष्ट्रीय हरित अधिकरण अधिनियम 2010, व्यक्ति या संस्था द्वारा पर्यावरण कानूनों या निर्दिष्ट शर्तों के उल्लंघन के कारण होने वाले नुकसान के लिए मुआवजे की मांग के लिए अनुमतियां प्रदान करता है ।
राष्ट्रीय ग्रीन ट्रिब्यूनल अधिनियम 2010 के फलस्वरूप एनजीटी का प्रिंसिपल बेंच राष्ट्रीय राजधानी – नई दिल्ली में स्थापित किया गया है, तथा पुणे (पश्चिमी क्षेत्र बेंच), भोपाल (केंद्रीय क्षेत्र बेंच), चेन्नई (दक्षिणी बेंच) और कोलकाता (पूर्वी बेंच) में इसके क्षेत्रीय जोन स्थापित किए गए हैं । प्रत्येक बेंच एक निर्दिष्ट भौगोलिक क्षेत्राधिकार में कार्य करता है जिसमें कई राज्य शामिल हैं। एनजीटी के सर्किट बेंच के लिए एक तंत्र भी है। उदाहरण के लिए, चेन्नई में स्थित दक्षिणी जोन बेंच, बैंगलोर या हैदराबाद जैसे अन्य स्थानों में बैठने का फैसला कर सकता है।
एनजीटी के अध्यक्ष सुप्रीम कोर्ट के एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश होते हैं तथा इसका मुख्यालय दिल्ली में अवस्थित है । वर्तमान में न्यायमूर्ति श्री आदर्श गोयल एनजीटी के अध्यक्ष हैं। एनजीटी के अन्य न्यायिक सदस्य उच्च न्यायालयों के सेवानिवृत्त न्यायाधीश हैं। एनजीटी के प्रत्येक खंड में कम से कम एक न्यायिक सदस्य और एक विशेषज्ञ सदस्य शामिल होते हैं। विशेषज्ञ सदस्यों के पास पर्यावरण / वन संरक्षण और संबंधित विषयों के क्षेत्र में पेशेवर योग्यता और कम से कम 15 वर्ष का अनुभव होना आवश्यक है ।
राष्ट्रीय हरित अधिकरण को प्रदत्त शक्तियाँ :
एनजीटी के पास एनजीटी अधिनियम की अनुसूची-1 में सूचीबद्ध कानूनों के कार्यान्वयन से जुड़े पर्यावरणीय मुद्दों और प्रश्नों से संबंधित सभी नागरिक मामलों पर सुनवाई की शक्ति है। इनमें निम्नलिखित अधिनियम शामिल हैं:
- जल (रोकथाम और प्रदूषण नियंत्रण) अधिनियम, 1974;
- जल (रोकथाम और प्रदूषण नियंत्रण) सेस अधिनियम, 1977;
- वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980;
- वायु (रोकथाम और प्रदूषण नियंत्रण) अधिनियम, 1981;
- पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986;
- लोक देयता बीमा अधिनियम, 1991;
- जैविक विविधता अधिनियम, 2002 ।
उपरोक्त कानूनों से संबंधित किसी के भी उल्लंघन, या इन कानूनों के तहत सरकार द्वारा उठाए गए किसी भी आदेश / निर्णय को एनजीटी के समक्ष चुनौती दी जा सकती है। यहाँ यह बताना महत्वपूर्ण है कि वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972, भारतीय वन अधिनियम, 1927 और वनों, वृक्ष संरक्षण आदि से संबंधित राज्यों द्वारा अधिनियमित विभिन्न कानूनों से संबंधित किसी भी मामले की सुनवाई के लिए एनजीटी को शक्तियों प्रदत्त नहीं है। अतः इन कानूनों से संबंधित मुद्दों को एनजीटी के समक्ष नहीं उठाया जा सकता है। इसके लिए एक राज्य याचिका (पीआईएल) के माध्यम से राज्य उच्च न्यायालय या सुप्रीम कोर्ट से संपर्क करना होगा या तालुक/ जिला के उचित सिविल न्यायाधीश के समक्ष एक मूल सूट दाखिल करना होगा।
राष्ट्रीय हरित अधिकरण में आवेदन दर्ज करने की प्रक्रिया :
एनजीटी में आवेदन डालने का तरीका बहुत ही सरल है। एनजीटी में पर्यावरण की क्षति के लिए मुआवजे की मांग करने/ सरकार के आदेश या निर्णय के खिलाफ अपील के लिए भी बहुत ही सरल प्रक्रिया का पालन होता है। क्षति-पूर्ति के मामलों में दावे की रकम की एक फीसदी राशि अदालत में जमा करनी होती है। पर जिन मामलों में क्षति-पूर्ति की बात नहीं होती है, उसमें मात्र एक हजार रु. की फीस ली जाती है। यह संस्था मानती है कि पर्यावरण को नुकसान पहुँचाने वाले ही इसकी भरपाई भी करें। यदि कानून की सही जानकारी हो तो एनजीटी में कोई भी अपना मुकदमा स्वयं भी लड़ सकता है। एनजीटी की आधिकारिक भाषा अंग्रेजी है।
राष्ट्रीय हरित अधिकरण द्वारा अपनाए गए न्याय के सिद्धांत :
एनजीटी नागरिक प्रक्रिया संहिता, 1908 के तहत निर्धारित प्रक्रिया से बंधी नहीं है। इसके अलावा, एनजीटी भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 में स्थापित साक्ष्य के नियमों से भी बंधा नहीं है, लेकिन यह प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों द्वारा निर्देशित है । इस प्रकार, अन्य अदालत के विपरीत एनजीटी के समक्ष किसी परियोजना में तकनीकी त्रुटियों को इंगित करना, या ऐसे विकल्पों का प्रस्ताव करना जो पर्यावरण क्षति को कम कर सकते हैं लेकिन जिन पर विचार नहीं किया गया है जैसे तथ्यों और मुद्दों को पेश करना अपेक्षाकृत आसान है। उल्लेखनीय है कि अपना निर्णय पारित करते समय, एनजीटी समान्यतः सतत विकास के सिद्धांतों का अनुपालन करती है।
राष्ट्रीय हरित अधिकरण द्वारा समीक्षा और अपील :
आदेश और निर्णय देते समय एनजीटी टिकाऊ विकास की ओर ध्यान देता है तथा पर्यावरण से जुड़ी सावधानियाँ बरतने की कोशिश करता है। एनजीटी के नियम के तहत, एनजीटी के निर्णय या आदेश की समीक्षा करने के लिए भी प्रावधान है। यदि यह प्रक्रिया विफल रहती है, तो एनजीटी आदेश को सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष निश्चित अवधि के भीतर चुनौती दी जा सकती है।
उपसंहार :
पर्यावरण के संरक्षण व प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग को नियंत्रित करने में पर्यावरण संबन्धित कानूनों की बहुत ही महत्त्वपूर्ण भूमिका है। पर्यावरण-संबंधी कानूनों की सफलता मुख्य रूप से इस बात पर निर्भर करती है कि उसका अनुपालन किस प्रकार से होता है। पर्यावरण कानून एवं स्वस्थ पर्यावरण को कायम रखने के लिये संबन्धित संस्थाओं के साथ-साथ आम जनता की भागीदारी भी आवश्यक है। राष्ट्रीय व अन्तरराष्ट्रीय स्तरों पर पर्यावरण संबन्धित अनगिनत कानून मौजूद हैं परंतु पर्यावरण से संबन्धित चुनौतियाँ भी कम नहीं है। अतः पर्यावरण संबंधी कानूनों के अनुपालन सुनिश्चित कराने तथा इसके उलंघन को रोकने में राष्ट्रीय हरित अधिकरण की महती भूमिका है।
कुमार मनोरंजन सिंह
वरिष्ठ प्रबन्धक (पर्यावरण)
Frequently Asked Questions (FAQs) 4
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Sustainable Food System
Q. What is sustainability?
A. Sustainability is the ability to exist constantly. It is defined as the quality of causing little or no damage to the environment and therefore able to continue for a long time. It refers generally to the capacity for the biosphere and human civilization to coexist. It is also defined as the process of people maintaining change in a homeostasis balanced environment, in which the exploitation of resources, the direction of investments, the orientation of technological development and institutional change are all in harmony and enhance both current and future potential to meet human needs and aspirations.
Q. What is food system?
A.A food system includes all processes and infrastructure involved in feeding a population: growing, harvesting, processing, packaging, transporting, marketing, consumption, and disposal of food and food-related items. It also includes the inputs needed and outputs generated at each of these steps. A food system operates within and is influenced by social, political, economic and environmental contexts.
Q. What is a sustainable food system?
A. A sustainable food system is one that does not require chemicals, conserves energy and water, emphasizes local production, decreases inputs and utilizes resources more efficiently on site, values biodiversity and ecology, and works within our global natural resource limitations. It aims to create a more direct link between the producers and consumers.
Developing sustainable food system is a shift in way the food is produced, processed and consumed.
Q. What is sustainable agriculture?
A. Sustainable agriculture system satisfies human food and fiber needs in which the fertility of soil is maintained and improved; the availability and quality of water is protected and enhanced; our biodiversity is protected; farmers, farm workers, and all other individual in value chains have livable incomes.
A key connecting many of these practices is diversification. “Keep it simple” is good advice in many situations, but when it comes to agriculture, the most sustainable and productive systems are more diverse and complex—like nature itself.
Q. Why is developing sustainable food system important?
A. The modern agriculture is a highly energy intensive operation and major contributor to GHGs and a leading cause of loss biodiversity. Agricultural operations use about 20 percent of the fossil-fuel energy and out of this, 40 percent is indirect energy used in the development of chemical pesticides and fertilizers. There is a need to work with natural processes to conserve all resources, minimize waste, and lessen the impact on environment.
According to the UN, 60 percent of the world population will be living in urban areas by 2030. Increase in urban population also means increased quantities of food to be distributed, which increases the transportation of food, contributing to traffic congestion and air pollution.
Q. How can the consumers contribute in making food systems sustainable?
A. Consumer is the key contributor in developing a sustainable food system. For this we will have to forgo convenience as adopting a sustainable food system requires personal investment, but the benefits are worth the effort. Just a few minor tweaks in daily life can have a huge impact on the way the food system develops in future.
- Include locally grown and seasonal items in food.
- Encourage cooking own food and eating variety of food. Discourage processed and packaged food items.
- Wasting minimum food should be the objective. Try composting the food waste.
- We must realize the true cost of food by taking into account the environmental and social costs of mass food production.
- Try to go organic, support farmers producing organic foods and support local shops.
- Educate and train the next generation.
[Contribution by: Jaspreet Singh, Senior Manager (Environment)]
“पर्यावरणीय स्वीकृति एवं जलविद्युत परियोजना : ईआईए अधिसूचना 2006”
Image Source = https://www.thehindu.com/sci-tech/energy-and-environment/plan-for-district-environment-impact-assessment-panels-under-fire/article28313596.ece
प्रस्तावना:
जलविद्युत परियोजनाओं की संकल्पना के पश्चात उनके निर्माण से पहले पर्यावरण स्वीकृती की आवश्यकता होती है। इस संबंध में पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम 1986 के अंतर्गत जारी की गयी पर्यावरण प्रभाव आकलन (ईआईए) अधिसूचना 2006, महत्वपूर्ण है। यह अधिसूचना राष्ट्रीय पर्यावरण नीति के उद्देश्यों को पूर्ण करने हेतु निर्मित की गई है जिसमें दी गई प्रक्रियाओं के अनुसार भारत के किसी भी क्षेत्र में प्रस्तावित विकास परियोजनाओं के कार्यान्वयन के लिए पर्यावरणीय स्वीकृति की आवश्यकता होती है। अधिसूचना में सूचीबद्ध की गई सभी नई परियोजनाओं, उनसे जुड़े क्रियाकलापों, उनके विस्तार अथवा आधुनिकीकरण करने लिए पर्यावरण स्वीकृति लिया जाना एक आवश्यक प्रक्रिया है।
1. परियोजना का वर्गीकरण:
पर्यावरण प्रभाव आंकलन (ईआईए) अधिसूचना 2006 के अनुसार, किसी भी विकास कार्य से कई प्रकार के प्रभाव जुड़े हैं जिनकी समुचित विवेचना करने के लिए प्रस्तावित की गई परियोजनाओं को दो प्रमुख श्रेणियों – अ (A) एवं ब (B) में विभाजित किया गया है।
1.1. श्रेणी ‘अ’ : अनुसूची के श्रेणी ‘अ’ में सम्मिलित सभी परियोजनाओं या गतिविधियों के संचालन के लिए पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा गठित विशेषज्ञ मूल्यांकन समिति (ईएसी /EAC) की सिफारिश आवश्यक है। अनुसूची के श्रेणी ’ब’ में सम्मिलित सभी परियोजनाओं या गतिविधियों के संचालन के लिए राज्य/ केंद्र शासित प्रदेश के पर्यावरण प्रभाव आकलन प्राधिकरण (एसईआईएए /SEIAA) से पूर्व-पर्यावरणीय स्वीकृति की आवश्यकता होती है। जलविद्युत परियोजनाओं के संबंध में, ≥ 50 मेगावाट जलविद्युत उत्पादन को अनुसूची श्रेणी ‘अ ’ के 1 (सी) में शामिल किया गया है, अत: इन परियोजनाओं को केंद्रीय मंत्रालय स्तर पर मूल्यांकन किया जाता है। < 50 मेगावाट से ≥ 25 मेगावाट के जलविद्युत उत्पादन को अनुसूची श्रेणी ‘ब ’ के 1 (सी) में शामिल किया गया है, जिसे राज्य स्तर पर मूल्यांकन किया जाता है।
1.2 श्रेणी ‘ब’ : यह भी ध्यान रखना होगा कि, श्रेणी ‘ब’ में वर्गीकृत की गई कोई भी परियोजना या गतिविधि श्रेणी ‘अ’ में माना जा सकता है यदि वह निम्नलिखित आहर्ताओं के 10 किमी के भीतर / हिस्से के अंतर्गत आता है :
- वन्य जीवन (संरक्षण) अधिनियम, 1972 के तहत अधिसूचित संरक्षित क्षेत्र,
- केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा समय-समय पहचाने गए गंभीर रूप से प्रदूषित क्षेत्र,
- पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 के तहत अधिसूचित पर्यावरण के प्रति संवेदनशील क्षेत्र जैसे- महाबलेश्वर पंचगनी, माथेरान, पचमढ़ी, दहानू, दून घाटी,
- अंतर-राज्य सीमाएँ और अंतर्राष्ट्रीय सीमाएं इत्यादि।
2. पर्यावरणीय स्वीकृति की प्रक्रिया:
प्रस्तावित परियोजना/ गतिविधियों के लिए जब संभावित स्थान की पहचान कर ली जाती है तब निर्माण गतिविधि से पहले, परियोजना प्रबंधन (आवेदक) द्वारा पूर्व-पर्यावरणीय स्वीकृति प्राप्त करने के लिए आवेदन किया जाता है। इसके लिए निर्धारित प्रपत्र – 1 भर कर, पूर्व-व्यवहार्यता परियोजना रिपोर्ट (Pre-feasibility project report) के साथ आवेदन किया जाता है। पर्यावरण स्वीकृति प्रक्रिया के चार शृंखलाबद्ध क्रम होते हैं:
2.1. स्क्रीनिंग (Screening) : यह परियोजना के प्रकार का आरंभिक वर्गीकरण करने की प्रक्रिया है। इस चरण में किन नई परियोजनाओं या क्रियाकलापों के लिए पर्यावरणीय प्रभाव आकलन रिपोर्ट आवश्यक है, इसकी सुनिश्चितता होती है। यह प्रक्रिया केवल प्रवर्ग ‘ब’ के लिए लागू है। इस प्रक्रम में, श्रेणी ‘ब 1’ परियोजनाओं के लिए पर्यावरणीय प्रभाव आकलन रिपोर्ट आवश्यक है परंतु श्रेणी ‘ब 2’ परियोजनाओं को पर्यावरण प्रभाव आकलन रिपोर्ट की आवश्यकता नहीं है।
2.2 स्कोपिंग (Scoping): जलविद्युत परियोजना अनुसूची ‘अ’ के 1 (c) के अंतर्गत केंद्रीय सरकार के पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय द्वारा निर्माण पूर्व गतिविधियों और पर्यावरणीय प्रभाव आंकलन (ईआइए) एवं पर्यावरणीय प्रबंधन योजनाओं (ईएमपी) के निर्माण करने के लिए व्यापक संदर्भ की शर्तें (Terms of References) की मंजूरी दी जाती है। यह टर्म्स ऑफ रिफरेन्स, ईआइए (EIA) और ईएमपी (EMP) अध्ययन के लिए संरचना उपलब्ध कराती है। टर्म्स ऑफ रिफरेन्स का मानकीकृत प्रारूप वैबसाइट (envfor.nic.in) पर भी उपलब्ध है। मंत्रालय द्वारा गठित विशेषज्ञ आंकलन समिति (EAC) या राज्य स्तरीय विशेषज्ञ आंकलन समिति (SEAC) स्वविवेक से/ परियोजना की परिस्थिति के अनुरूप टर्म्स ऑफ रेफरेन्स में अतिरिक्त अध्ययन भी प्रस्तावित कर सकती है । आवेदक द्वारा प्रेषित किए गए प्रारूप 1 / प्रारूप 1 अ में दी गई जानकारी के आधार पर केंद्रीय मंत्रालय के विशेषज्ञ आंकलन समिति (EAC) द्वारा आंकलन करने के पश्चात टर्म्स ऑफ रेफरेन्स का अनुमोदन पत्र आवेदक को संप्रेषित किया जाता है। इसके पश्चात, मान्यता प्राप्त परामर्शकों के माध्यम से विस्तृत पर्यावरण प्रभाव आकलन अध्ययन कराया जाता है।
2.3 लोक परामर्श (Public Consultation) : “लोक परामर्श” उस प्रक्रिया को संदर्भित करता है जिसके द्वारा स्थानीय प्रभावित व्यक्तियों की प्रतिक्रिया या अन्य व्यक्ति जो परियोजना या गतिविधि के पर्यावरणीय प्रभावों में स्वीकार्य हिस्सेदारी रखते हैं, उनका अभिमत या राय ली जाती है। लोक परामर्श में आमतौर पर स्थानीय प्रभावित व्यक्तियों की प्रतिक्रिया को संबोधित करने हेतु, परियोजना के प्रत्येक जनपद में जनसुनवाई निर्धारित तरीके से की जाती है एवं संबंधित व्यक्ति से परियोजना या गतिविधि पर लिखित में प्रतिक्रिया प्राप्त की जाती है। लोक परामर्श के दौरान व्यक्त की गई प्रतिक्रिया पर आवेदक पर्यावरण संबंधी मुद्दे को संबोधित करता है एवं ईआईए और ईएमपी रिपोर्ट में उचित बदलाव अथवा वैकल्पिक रूप से परामर्श के दौरान व्यक्त की गई प्रतिक्रिया को संबोधित करते हुए ईआइए (EIA) और ईएमपी (EMP) के मसौदा के साथ पूरक रिपोर्ट भी तैयार करता है ।जनसुनवाई के आयोजन का संचालन राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (SPCB) या केंद्र शासित प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण समिति (UTPCC) द्वारा निर्दिष्ट तरीके किये जाने के उपरांत जनसुनवाई कार्यवाही (proceedings) को विनियामक प्राधिकरण (regulatory authority) को प्रेषित कर दिया जाता है।
2.4 मूल्यांकन (Appraisal) : इस प्रक्रिया में परियोजना प्रबंधक द्वारा अंतिम ईआईए/ ईएमपी रिपोर्ट, कार्यकारी सारांश, विस्तृत परियोजना रिपोर्ट (डीपीआर), जन सुनवाई की कार्यवाहियों को क्रमश: पर्यावरण वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय या राज्य प्रबंधन के विशेषज्ञ मूल्यांकन समिति या राज्य स्तरीय मूल्यांकन समिति द्वारा विस्तृत मूल्यांकन किए जाने हेतु अग्रेषित किया जाता है। आवेदन की प्राप्ति के पश्चात केंद्रीय या राज्य स्तरीय विशेषज्ञ मूल्यांकन समिति द्वारा संबंधित पर्यावरण प्रभाव आकलन रिपोर्ट और अन्य दस्तावेज पर निर्णय सुनिश्चित किया जाता है। ईएसी की सिफारिश के पश्चात परियोजना को अनुपालन शर्तों के अधीन पर्यावरणीय मंजूरी दी जाती है। नियामक प्राधिकरण द्वारा ईएसी या एसईएसी की सिफारिशों (recommendations) पर विचार करने के उपरांत, अपेक्षित निर्णय की जानकारी से आवेदक को सूचित किया जाता है।
3. पर्यावरणीय मंजूरी की वैधता अवधि:
पर्यावरणीय मंजूरी, नदी घाटी परियोजनाएँ (शेड्यूल आइटम 1 सी), के संबंध में दस साल की अवधि के लिए मान्य है जो कि तीन साल की अधिकतम अवधि के लिए विस्तारित की जा सकती है।
4. पर्यावरणीय स्वीकृति प्राप्ति के उपरांत निगरानी:
पर्यावरण मंजूरी नियमों और शर्तों पर आधारित परियोजना/कार्यकलापों की अर्ध-वार्षिक अनुपालन रिपोर्ट, प्रत्येक कैलेंडर वर्ष में 1 जून और 1 दिसंबर को संबंधित नियामक प्राधिकरण या पर्यावरण, वन एवं जलवायु मंत्रालय के क्षेत्रीय कार्यालयों को हार्ड और सॉफ्ट प्रतियां, परियोजना प्रबंधन द्वारा प्रेषित करना अनिवार्य है। इसके अतिरिक्त पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन अध्ययन की अनुशंसाओं पर विमर्श के लिए ईएसी द्वारा गठित मॉनिटरिंग कमिटी की परियोजना में समय-समय पर बैठक होती रहती है।
पर्यावरण प्रभाव आंकलन अधिसूचना 2006 का उपयोग पर्यावरण और वन मंत्रालय (एमओईएफ) द्वारा पर्यावरण पर तेजी से औद्योगिकीकरण के प्रतिकूल प्रभाव को कम करने और उन रुझानों को अकृत करने के लिए एक प्रमुख उपकरण के रूप में किया जाता है जो अंतत: जलवायु परिवर्तन का कारण बन सकते हैं।
-रितुमाला गुप्ता
वरि. प्रबंधक (पर्यावरण)
स्रोत : पर्यावरण, वन एवं जलवायु मंत्रालय, भारत सरकार – ईआईए अधिसूचना 2006
Punarnava – A common weed, a wonder plant
Nomenclature
Scientific Name: Boerhavia diffusa
Hindi & Sanskrit: Punarnava
English: Hogweed, Spiderlings
Tamil: Mookkirattai keerai
Even as we live in polluted environments, in conditions similar to gas chambers, eating food whose origins we never know, forever suspecting poison and adulteration in every next thing, there is a plant around us, insignificant and a very common weed which is known in the world of ayurveda and herbal medicine as a wonder drug, renowned for its abilities for detoxification and rejuvenation of human body. Punarnava, which literally means “to bring back to life”, is a creeper that grows in open spaces, commonly found throughout India and all over the tropical and subtropical nations. The plant belongs to the family Nyctaginaceae. It usually grows abundantly after rain. This edible herb, contains many medicinal properties in it that it is used to treat many ailments.
Medicinal value: In Ayurveda, the plant is used in a variety of diseases ranging from skin disorders, liver dysfunction, asthma, intestinal diseases, cough, kidney and heart problems etc. Punarnava herb is most widely used in treatment of renal and urinary problems. Punarnava has excellent anti-inflammatory and diuretic properties. It is used as a heart tonic. The leaves are a natural coolant, laxative, diuretic, anti-inflammatory and anti-bacterial by nature.
Other uses: Punarnava has a long history of use by indigenous and tribal people and the leaves are used as a vegetable in several parts of India. The leaves can be cooked and served like any other leafy vegetable dish.
Plant identification: The plant is identified by its purple flowers, leathery purple stem and deep green almost round asymmetric leaves. A ground creeper, the plant propagates through seeds and cuttings, grows luxuriantly in the wild and is mostly difficult to grow in pots.
– Anitha Joy
Manager (Environment)
पर्व , पटाखे, प्रदूषण, प्रकृति, पर्यावरण और हम
Image Source = https://www.npr.org/2019/06/29/737001802/this-4th-of-july-think-of-your-feathered-friends-as-you-plan-for-fireworks
पृष्ठभूमि :
सर्दियों की शुरुआत के साथ बीते कुछ वर्षों में लगातार देश के कई उत्तर-मध्य भागों के नगरों/महानगरों से वातावरण की वायु व दृश्यता गुणवत्ता में गिरावट संबंधी ख़बरें चिंता का विषय हो गई हैं | अक्टूबर माह के आखरी हफ़्तों से लेकर लगभग अगले मौसम की करवट तक यानि बसंत ऋतु के आगमन (फरवरी-मार्च) तक बुरे पर्यावरण हालातों में जीना मजबूरी होती जा रही है| वर्ष का ये समय लगातार एक के बाद एक प्रमुख भारतीय पर्वों जो वृहत “दशहरा” व “दीपावली” के त्यौहार से शुरू होकर “क्रिसमस” व “नववर्ष” के उत्सव-काल तक जारी रहता है, का साक्षी है| इस दौरान देश के कई हिस्सों में प्रकृति पर्व जैसे छट, लोहड़ी, बिहू, मकर संक्रांति, पोंगल इत्यादि भी मनाया जाता है| पर्व-त्यौहार आदि काल से मानव सभ्यता का अभिन्न अंग रहे हैं|
प्रत्येक पर्व-त्योहार सामाजिक मान्यताओं, परंपराओं व पूर्व संस्कारों पर आधारित होते हैं। इनको मनाने की विधियों में भी भिन्नता होती है। बदलते वक़्त के साथ त्यौहारों को मनाने का अंदाज बदला और विगत कई दशकों से आतिशबाजी व पटाखे लगभग प्रत्येक पर्व-त्योहार/समारोह का हिस्सा बने रहे| आतिशबाजी व पटाखे पर्व-त्यौहार का पर्याय माने जाने लगे थे पर हाल के बदहाल पर्यावरणीय हालातों के मद्देनजर और बढ़ती जागरूकता, अनवरत श्वास व स्वास्थ्य संबंधी परेशानियों ने पटाखों के अंधाधुंध प्रयोग को लेकर सोचने हेतु मजबूर किया है|
आतिशबाजी और पटाखों का भारतीय इतिहास भी काफी पुराना है| छटवीं सदी में बारूद के आविष्कार के बाद पटाखे और फिर आतिशबाजी भी अस्तित्व में आ गए थे | भारत में आतिशबाजी का प्रमाण 15वीं सदी से मिलने शुरू होते हैं | सदियों पुरानी तस्वीरों में फुलझड़ियों और आतिशबाजी के दृश्य पाए गए हैं | ऐतिहासिक दस्तावेजों में भी आतिशबाजी का जिक्र मिलता है| पर्व-त्यौहारों व उत्सव-समारोहों में आतिशबाजी आज से पहले भी हुआ करती थी | तब पर्यावरण के हालत आज जैसे बदहाल नहीं हुआ करते थे और पटाखों में जहरीले रसायनों का उपयोग भी सीमित होता था |
विवेचना :
सर्दियों की शुरुआत होते ही तापमान कम होने लगता है और वायुमंडलीय दबाव बढ़ जाता है| इस मौसम में कोहरा छाना एक सामान्य पर्यावरणीय घटना है| लेकिन जब इस कोहरे का धुएं के साथ मिश्रण होता है तो उसे धुंध (स्मॉग) कहते हैं जो एक अत्यंत घातक वायु प्रदूषक तत्व है । धुंध भी एक तरह का कोहरा ही होता है बस इसमें दृश्यता का अंतर होता है। धुंध में दृश्यता की सीमा एक किमी या इससे कम होती है| शहर, नगर, महानगर सुबह-शाम धुएं औऱ धुंध में घिरना शुरू हो जाते हैं| वाहनों, कारखानों और उद्योगों से निकलने वाला धुआं तथा किसानों द्वारा खेतों में खुले में जलाई जाने वाली पराली (कृषि अवशेष) बेशक ही इन बदहाल हालातों की प्रमुख वजह रहा है लेकिन इस दौरान मनाए गए पर्व-त्यौहारों के दौरान की गई आतिशबाजी के बाद बम-पटाखों-फुलझड़ियों से निकलने वाला धुआं भी कोहरा और धुंध में मिलकर कई दिनों के लिए आसमान में जहरीले बादल का आवरण बढ़ा देता है| बढ़ी आबादी, ऊँची इमारतें, खुले मैदानों की कमी, सघन रिहायसी इलाके, भारी प्रदुषण, जरूरी हरियाली व पेड़ों की कमी जैसे प्रत्यक्ष-परोक्ष कारकों ने स्थानीय वायु-प्रवाह और वायु-संचारह की प्राकृतिक प्रणाली को बहुत नुक्सान पहुँचाया है| जहरीली हवा अपने श्रोत के पास ही फँस कर रह जाती है और वायुमंडल में घुल कर उसका विस्तारण व निपटान नहीं हो पाता| फलस्वरूप हालत बद से बदद्तर होते जाते हैं|
आज वैश्विक जलवायु परिवर्तन व तापमान वृद्धि से विश्व का कोई भी कोना अछूता नहीं रह गया है| कम बारिश और सूखे की वजह से गर्मियों के मौसम में उत्पन्न धूल व अन्य वायु कणिकाएँ वायुमंडल में ही घूमती रहती है और धरती की सतह पर नहीं आ पाती| सर्दियों के मौसम के कोहरे में मिलकर धुंध को हानिकारक बनाने में इनका भी योगदान होता है | आतिशबाजी और पटाखों का धुआं इस धुंध को और भी जहरीला बना देता है| सूर्य की रौशनी व ऊष्मा धुंध और धुएं के इस आवरण से छनकर धरती की सतह तक पहुँच तो जाती है पर हरित गृह प्रभाव (green house effect) की प्रक्रिया के कारण इसका पुन: परावर्तन नहीं हो पाता और हालात दमघोटू होने लगते हैं| सर्दियों के मौसम में पश्चिमी विक्षोभ (Western disturbance) के कारण उत्तर-पश्चिम भारत में थोड़ी बहुत वर्षा होती है।वर्षा की मात्रा धीरे-धीरे उत्तर और उत्तर-पश्चिम से पूर्व तक घट जाती है।भारत के उत्तर पूर्वी हिस्से में भी सर्दियों के महीनों के दौरान वर्षा होती है। वायुमंडल में तैरते समस्त सूक्ष्म जहरीले और हानिकारक पदार्थ वर्षाजल के साथ घुल कर धरती पर आ जाते हैं| यहाँ से यह मिट्टी एवं जल श्रोतों के माध्यम से होकर, भोजन श्रृंखला में प्रवेश कर अंततः शरीर में अवशोषित हो मनुष्य के लिए ही नुकसानदायक बन जाता है| क्षतिपूर्ति न हो पाने की सीमा तक पर्यावरण की क्षति हो जाती है | प्रकृति की स्वत: पुनरुद्धार क्षमता बुरी तरह क्षत-विक्षत हो जाने से मानव अस्तित्व का संकट में आना स्वभाविक मुद्दा है |
सारांश :
पर्व-त्योहार हर्षोंल्लास व नवीनता का संचार करने के साथ ही पारस्परिक प्रेम व भाईचारा का प्रसार कर राष्ट्रीय एकता में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं| त्यौहारों को उत्साह व उमंग के साथ, प्रकृति एवं पर्यावरण का सम्मान व संरक्षण करते हुए मनाना हम सब का सर्वोपरि कर्तव्य होना चाहिए क्योंकि इस से ही हमारा जीवन, समस्त पर्व-त्यौहार, उत्सव व अस्तित्व जुड़ा है|
-पूजा सुन्डी
सहायक प्रबंधक (पर्यावरण)
पर्यावरण शब्दकोश (6)
Image Source = https://www.carbonaction.co.uk/carbon-footprint-training
क्र. | शब्द |
अर्थ
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1 | कवक
(Fungi) |
कवक पृथ्वी पर सबसे व्यापक रूप से वितरित जीवों में से है। ये अत्यंत पर्यावरणीय व चिकित्सीय महत्व के हैं। कवक एकल कोशिकीय या बहुत जटिल बहुकोशिकीय जीव होते हैं। कई कवक मिट्टी या पानी में मुक्त रूप से रहते हैं; अन्य पौधों या जानवरों के साथ परजीवी या सहजीवी तौर पर पाए जाते हैं।ये एक पारिस्थितिकी तंत्र में पोषक चक्र के संचालन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।इसमें यीस्ट, रसट्स, स्मट्स, माइल्ड्यूज़, मोल्ड्स और मशरूम शामिल हैं।
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2 | कवकनाशी
( Fungicide) |
कवक दुनिया भर में फसल के नुकसान का एक बड़ा कारण है। कवकनाशी एक विशिष्ट प्रकार का कीटनाशक है जिसका उपयोग कवक की वृद्धि को मारने या बाधित करने के लिए किया जाता है। आमतौर पर परजीवी कवक को नियंत्रित करने के लिए कवकनाशी का उपयोग किया जाता है जो या तो फसल या सजावटी पौधों को आर्थिक नुकसान पहुंचाते हैं या घरेलू पशुओं या मनुष्यों के स्वास्थ्य को खतरे में डालते हैं।
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3 | कार्बन चक्र
(carbon cycle) |
कार्बन चक्र वह चक्र है जिसके द्वारा कार्बन पृथ्वी की विभिन्न प्रणालियों से गुजरता है। पृथ्वी का अधिकांश कार्बन (लगभग 65,500 बिलियन मीट्रिक टन) चट्टानों में संचित है। शेष महासागर, वायुमंडल, पौधों, मिट्टी और जीवाश्म ईंधन में संचित है। कार्बन के इन सभी संचित भंडारों के बीच कार्बन प्रवाहित होता है। कार्बन चक्र को जीवित चीजें, वायुमंडलीय परिवर्तन, महासागर रसायन विज्ञान और भूगर्भीय गतिविधियां प्रभावित करती हैं।वर्तमान में काफी हद तक मानवीय गतिविधियों के कारण कार्बन का स्तर एक सर्वकालिक उच्च स्तर पर है।
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4 | कार्बन पदचिन्ह
(carbon footprints) |
कार्बन पदचिह्न, कार्बन डाइऑक्साइड संबंधी सभी उत्सर्जनों का योग है, जो एक निश्चित समय सीमा की गतिविधियों से उत्पन्न हुए हैं। आमतौर पर एक कार्बन पदचिह्न की गणना एक वर्ष की समयावधि के लिए की जाती है। कार्बन पदचिह्न व कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा (CO2) का उत्सर्जन किसी व्यक्ति या संस्था (जैसे भवन, निगम, देश, आदि) की सभी गतिविधियों से जुड़ा होता है। इसमें प्रत्यक्ष उत्सर्जन शामिल है जैसे कि विनिर्माण, ताप और परिवहन में जीवाश्म-ईंधन दहन के परिणामस्वरूप उत्पन्न उत्सर्जन , साथ ही उपभोग की जाने वाली वस्तुओं और सेवाओं से जुड़ी बिजली का उत्पादन करने के लिए आवश्यक उत्सर्जन इत्यादि। इसके अलावा, कार्बन पदचिह्न अवधारणा में अक्सर मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड या क्लोरोफ्लोरोकार्बन (सीएफसी) जैसी अन्य ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन भी शामिल होता है। प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से मानव गतिविधियों के द्वारा उत्पादित ग्रीनहाउस गैसों की कुल मात्रा, आमतौर पर कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) के बराबर टन में व्यक्त की जाती है।
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5 | कार्बनिक पदार्थ
(Organic matter) |
कार्बनिक पदार्थ वह पदार्थ है जिसमें बड़ी मात्रा में कार्बन-आधारित यौगिक होते हैं। कार्बनिक पदार्थ का सबसे बड़ा घटक मृत पदार्थ है। यह पौधे और जानवरों के अवशेषों के टूटने से प्राप्त होता है ।मिट्टी में मृत पदार्थ लगभग 85% कार्बनिक पदार्थ बनाता है। कार्बनिक पदार्थ में मृत पदार्थ, जीवित रोगाणु और पौधों के जीवित भाग शामिल हैं। यह ऑक्सीजन, हाइड्रोजन, नाइट्रोजन, फास्फोरस और सल्फर के साथ पैंतालीस से पचास प्रतिशत कार्बन से बना होता है।
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6 | कठोर जल
(Hard water) |
वह जल जिसमें कैल्शियम और मैग्नीशियम के लवण, मुख्यत: बाइकार्बोनेट, क्लोराइड, और सल्फेट्स के रूप में होते हैं, कठोर जल कहलाता है। इसमें लौह अवशेष भी मौजूद हो सकता है जो धुले हुए कपड़े और तामचीनी सतहों पर लाल भूरे रंग के धब्बे के रूप में दिखाई देगा। कठोर जल प्राकृतिक रूप से उस स्थिति में होता है, जहां पानी कैल्शियम कार्बोनेट या मैग्नीशियम कार्बोनेट, जैसे चाक या चूना पत्थर के माध्यम से फैलता है।
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7 | कीटनाशक
(Pesticide) |
कीटनाशक रासायनिक यौगिक हैं जिनका उपयोग कीटों, कृन्तकों, कवक और अवांछित पौधों (खरपतवारों) को मारने के लिए किया जाता है। सार्वजनिक स्वास्थ्य में कीटनाशकों का उपयोग रोग के कारकों जैसे मच्छरों और कृषि में, फसलों को नुकसान पहुंचाने वाले कीटों को मारने के लिए किया जाता है। कीटनाशक मनुष्यों सहित अन्य जीवों के लिए संभावित रूप से विषैले होते हैं और उन्हें सुरक्षित रूप से उपयोग एवं निपटान करने की आवश्यकता है।
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8 | कृषि अवशेष
(Agricultural waste) |
कृषि अवशेष/अपशिष्ट को कृषि गतिविधियों के परिणामस्वरूप उत्पन्न होने वाले अवांछित कचरे के रूप में परिभाषित किया जाता है, जैसे- खाद, तेल, उर्वरक, कीटनाशक, पोल्ट्री घरों और बूचड़खानों से उत्पन्न कचरा, पशु चिकित्सा दवाएँ या बागवानी प्लास्टिक आदि।
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9 | कृषि पारिस्थितिकी
(Agri-ecology) |
कृषि पारिस्थितिकी / कृषिविज्ञान, कृषि उत्पादन प्रणालियों के लिए लागू पारिस्थितिक प्रक्रियाओं का अध्ययन है। इसके द्वारा कृषि उत्पादन प्रणालियों और पारिस्थितिक प्रक्रियाओं के बीच संबंधों का आकलन किया जाता है। इसमें अंतर्गत वे सभी तकनीकें शामिल हैं जो कृषि प्रथाओं को पर्यावरण और इसकी पारिस्थितिक विशिष्टताओं के प्रति धारणीय बनाती हैं।
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10 | कूड़ा –करकट
(Garbage)
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औद्योगिक अपशिष्टों को छोड़कर अन्य सभी अपशिष्ट कूड़ा –करकट/कचरा कहलाता है। किसी स्थान पर सफ़ाई करने के बाद निकली गंदगी, ऐसी चीज़ जो बिलकुल रद्दी मान ली गई हो, कचरा, धूल-गंदगी, रद्दी और अनुपयोगी वस्तुएँ जिन्हें सामान्यता फेंक दिया जाता है, इसके अंतर्गत आती हैं।
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– पूजा सुन्डी
सहायक प्रबंधक ( पर्यावरण )
पार्बती-III पावर स्टेशन द्वारा सैंज में वृहद स्वच्छता रैली एवं प्लास्टिक रोकथाम पर जागरूकता कार्यक्रम
पार्बती-III पावर स्टेशन, बिहाली में 17 सितंबर से 02 अक्टूबर’ 2019 तक चले “स्वच्छता ही सेवा” कार्यक्रम के अंतर्गत दिनांक 01.10.2019 को सैंज के स्थानीय बाज़ार में वृहद स्वच्छता रैली एवं राजकीय महाविद्यालय, सैंज में स्वच्छता जागरूकता कार्यक्रम का आयोजन किया गया। पार्बती-III पावर स्टेशन के सैंज स्थित बांध परिसर से रैली शुरू होकर राजकीय महाविद्यालय, सैंज में समाप्त हुई। रैली का मुख्य उद्देश्य प्लास्टिक निषेध था तथा रैली के दौरान रास्ते से प्लास्टिक युक्त पदार्थ जैसे प्लास्टिक की बोतलें, पैकेट आदि को उठाकर निपटान हेतु ले जाया गया।
स्वच्छता रैली के बाद राजकीय विद्यालय, सैंज में स्वच्छता जागरुकता एवं प्लास्टिक निषेध पर कार्यक्रम आयोजित किया गया। श्री विशाल शर्मा, वरिष्ठ प्रबन्धक (पर्यावरण) ने प्लास्टिक की रोकथाम एवं एकल उपयोग प्लास्टिक (Single Use Plastic) की रोकथाम पर महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान की। इस दौरान राजकीय महाविद्यालय, सैंज के छात्र-छात्राओं द्वारा प्लास्टिक निषेध पर नुक्कड़ नाटक प्रस्तुत किया गया और “स्वच्छता ही सेवा” कार्यक्रम के उपलक्ष्य में आयोजित चित्रकला प्रतियोगिता के विजेता छात्रों को पुरस्कृत किया गया।