Image Source = https://www.npr.org/2019/06/29/737001802/this-4th-of-july-think-of-your-feathered-friends-as-you-plan-for-fireworks

 

पृष्ठभूमि :

 

सर्दियों की शुरुआत के साथ बीते कुछ वर्षों में लगातार देश के कई उत्तर-मध्य भागों के नगरों/महानगरों से वातावरण की वायु व दृश्यता गुणवत्ता में गिरावट संबंधी ख़बरें चिंता का विषय हो गई हैं | अक्टूबर माह के आखरी हफ़्तों से लेकर लगभग अगले मौसम की करवट तक यानि बसंत ऋतु के आगमन (फरवरी-मार्च) तक बुरे पर्यावरण हालातों में जीना मजबूरी होती जा रही है| वर्ष का ये समय लगातार एक के बाद एक प्रमुख भारतीय पर्वों जो वृहत “दशहरा” व “दीपावली” के त्यौहार से शुरू होकर “क्रिसमस” व “नववर्ष” के उत्सव-काल तक जारी रहता है, का साक्षी है| इस दौरान देश के कई हिस्सों में प्रकृति पर्व जैसे छट, लोहड़ी, बिहू, मकर संक्रांति, पोंगल इत्यादि भी मनाया जाता है| पर्व-त्यौहार आदि काल से मानव सभ्यता का अभिन्न अंग रहे हैं|

 

प्रत्येक पर्व-त्योहार सामाजिक मान्यताओं, परंपराओं व पूर्व संस्कारों पर आधारित होते हैं। इनको मनाने की विधियों में भी भिन्नता होती है। बदलते वक़्त के साथ त्यौहारों को मनाने का अंदाज बदला और विगत कई दशकों से आतिशबाजी व पटाखे लगभग प्रत्येक पर्व-त्योहार/समारोह का हिस्सा बने रहे| आतिशबाजी व पटाखे पर्व-त्यौहार का पर्याय माने जाने लगे थे पर हाल के बदहाल पर्यावरणीय हालातों के मद्देनजर और बढ़ती जागरूकता, अनवरत श्वास व स्वास्थ्य संबंधी परेशानियों ने पटाखों के अंधाधुंध प्रयोग को लेकर सोचने हेतु मजबूर किया है|

 

आतिशबाजी और पटाखों का भारतीय इतिहास भी काफी पुराना है| छटवीं सदी में बारूद के आविष्कार के बाद पटाखे और फिर आतिशबाजी भी अस्तित्व में आ गए थे | भारत में आतिशबाजी का प्रमाण 15वीं सदी से मिलने शुरू होते हैं | सदियों पुरानी तस्वीरों में फुलझड़ियों और आतिशबाजी के दृश्य पाए गए हैं | ऐतिहासिक दस्तावेजों में भी आतिशबाजी का जिक्र मिलता है| पर्व-त्यौहारों व उत्सव-समारोहों में आतिशबाजी आज से पहले भी हुआ करती थी | तब पर्यावरण के हालत आज जैसे बदहाल नहीं हुआ करते थे और पटाखों में जहरीले रसायनों का उपयोग भी सीमित होता था |

 

विवेचना :

 

सर्दियों की शुरुआत होते ही तापमान कम होने लगता है और वायुमंडलीय दबाव बढ़ जाता है| इस मौसम में कोहरा छाना एक सामान्य पर्यावरणीय घटना है| लेकिन जब इस कोहरे का धुएं के साथ मिश्रण होता है तो उसे धुंध (स्‍मॉग) कहते हैं जो एक अत्यंत घातक वायु प्रदूषक तत्व है । धुंध भी एक तरह का कोहरा ही होता है बस इसमें दृश्‍यता का अंतर होता है। धुंध में दृश्‍यता की सीमा एक किमी या इससे कम होती है| शहर, नगर, महानगर सुबह-शाम धुएं औऱ धुंध में घिरना शुरू हो जाते हैं| वाहनों, कारखानों और उद्योगों से निकलने वाला धुआं तथा किसानों द्वारा खेतों में खुले में जलाई जाने वाली पराली (कृषि अवशेष) बेशक ही इन बदहाल हालातों की प्रमुख वजह रहा है लेकिन इस दौरान मनाए गए पर्व-त्यौहारों के दौरान की गई आतिशबाजी के बाद बम-पटाखों-फुलझड़ियों से निकलने वाला धुआं भी कोहरा और धुंध में मिलकर कई दिनों के लिए आसमान में जहरीले बादल का आवरण बढ़ा देता है| बढ़ी आबादी, ऊँची इमारतें, खुले मैदानों की कमी, सघन रिहायसी इलाके, भारी प्रदुषण, जरूरी हरियाली व पेड़ों की कमी जैसे प्रत्यक्ष-परोक्ष कारकों ने स्थानीय वायु-प्रवाह और वायु-संचारह की प्राकृतिक प्रणाली को बहुत नुक्सान पहुँचाया है| जहरीली हवा अपने श्रोत के पास ही फँस कर रह जाती है और वायुमंडल में घुल कर उसका विस्तारण व निपटान नहीं हो पाता| फलस्वरूप हालत बद से बदद्तर होते जाते हैं|

 

आज वैश्विक जलवायु परिवर्तन व तापमान वृद्धि से विश्व का कोई भी कोना अछूता नहीं रह गया है| कम बारिश और सूखे की वजह से गर्मियों के मौसम में उत्पन्न धूल व अन्य वायु कणिकाएँ वायुमंडल में ही घूमती रहती है और धरती की सतह पर नहीं आ पाती| सर्दियों के मौसम के कोहरे में मिलकर धुंध को हानिकारक बनाने में इनका भी योगदान होता है | आतिशबाजी और पटाखों का धुआं इस धुंध को और भी जहरीला बना देता है| सूर्य की रौशनी व ऊष्मा धुंध और धुएं के इस आवरण से छनकर धरती की सतह तक पहुँच तो जाती है पर हरित गृह प्रभाव (green house effect) की प्रक्रिया के कारण इसका पुन: परावर्तन नहीं हो पाता और हालात दमघोटू होने लगते हैं| सर्दियों के मौसम में पश्चिमी विक्षोभ (Western disturbance) के कारण उत्तर-पश्चिम भारत में थोड़ी बहुत वर्षा होती है।वर्षा की मात्रा धीरे-धीरे उत्तर और उत्तर-पश्चिम से पूर्व तक घट जाती है।भारत के उत्तर पूर्वी हिस्से में भी सर्दियों के महीनों के दौरान वर्षा होती है। वायुमंडल में तैरते समस्त सूक्ष्म जहरीले और हानिकारक पदार्थ वर्षाजल के साथ घुल कर धरती पर आ जाते हैं| यहाँ से यह मिट्टी एवं जल श्रोतों के माध्यम से होकर, भोजन श्रृंखला में प्रवेश कर अंततः शरीर में अवशोषित हो मनुष्य के लिए ही नुकसानदायक बन जाता है| क्षतिपूर्ति न हो पाने की सीमा तक पर्यावरण की क्षति हो जाती है | प्रकृति की स्वत: पुनरुद्धार क्षमता बुरी तरह क्षत-विक्षत हो जाने से मानव अस्तित्व का संकट में आना स्वभाविक मुद्दा है |

 

सारांश :

 

पर्व-त्योहार हर्षोंल्लास व नवीनता का संचार करने के साथ ही पारस्परिक प्रेम व भाईचारा का प्रसार कर राष्ट्रीय एकता में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं| त्यौहारों को उत्साह व उमंग के साथ, प्रकृति एवं पर्यावरण का सम्मान व संरक्षण करते हुए मनाना हम सब का सर्वोपरि कर्तव्य होना चाहिए क्योंकि इस से ही हमारा जीवन, समस्त पर्व-त्यौहार, उत्सव व अस्तित्व जुड़ा है|

 

-पूजा सुन्डी

सहायक प्रबंधक (पर्यावरण)