मनुष्यों द्वारा आत्महत्या सर्वविदित है, परंतु क्या कभी किसी ने सर्पों द्वारा आत्महत्या के विषय में सुना है? सुनने में यह बात भले ही आश्चर्यजनक लगे परंतु छत्तीसगढ़ राज्य के बस्तर जिले के कांगेर घाटी राष्ट्रीय उद्यान के निकट रहने वाले आदिवासियों का कथन है कि दरभा घाट के निकट स्थित गरुड़ वृक्ष के नीचे सर्प आत्महत्या करने जाते हैं तथा उन्होंने अनेक सर्पों को उस वृक्ष के नीचे मृत अवस्था में देखा भी है । इस वृक्ष का नाम भगवान विष्णु के वाहन ‘गरुण’ के नाम पर इसीलिए रखा गया है क्योंकि गरुण का मुख्य भोजन सर्प ही हैं । अनुमानतः इसी कारण से आदिवासी इस वृक्ष को सर्पनाशक मानते हैं ।

 

इस वृक्ष का वानस्पतिक नाम रेडरमाचेरा ज़ाइलोकार्पा (Radermachera xylocarpa) है, जो बिगनोनिएसी (Bignoniaceae)  परिवार (family) का सदस्य है । इस वृक्ष के वंश (Genus) का नामकरण नीदरलैंड के एक विख्यात वनस्पतिज्ञ जैकोबस कॉर्नेलिअस मैथिअस रेडरमाचेर (1741-1783) के ऊपर किया गया है । इस वंश की 16 प्रजातियां दक्षिण-पूर्व एशिया तथा मलेशिया में एवं 3 प्रजातियां भारत में पाई जाती हैं । मध्य भारत में इसकी केवल एक प्रजाति रेडरमाचेरा ज़ाइलोकार्पा (गरुण) ही पाई जाती है । प्रकाशित तथ्यों के आधार पर मध्य भारत में इस वृक्ष का वितरण सतपुड़ा पर्वत श्रृंखलाओं, मंडला, बालाघाट, बस्तर, अमरकंटक, बांधवगढ़, जबलपुर, बिलासपुर, रायगढ़ तथा सरगुजा में है ।

 

वानस्पतिक दृष्टिकोण से रेडरमाचेरा ज़ाइलोकार्पा एक पर्णपाती वृक्ष है, जिसकी ऊंचाई 15-20 मीटर तक होती है । इसकी द्विपिक्षाकार असमपिक्षकी संयुक्त पत्तियां 50-80 सेंटीमीटर लंबी होती हैं । प्रत्येक पत्ती में 5-9 पिक्षकाएं होती हैं, जो आकार में दीर्घवृत्ताकार से अंडाकार तथा 5-10 सेंटीमीटर लंबी व 3-5 सेंटीमीटर चौड़ी होती हैं । पिक्षकाओं का शीर्ष निशिताग्र अथवा लम्बाग्र, किनारे अच्छिन्न अथवा ऋकची तथा सत्य चिकनी होती है । पुष्प अंडाकार तथा उच्छीर्ष, रोमयुक्त समूहों में पाए जाते हैं एवं बड़े तथा सुगंधित होते हैं । बाह्यदलपुंज घंटाकार लगभग 1 सेंटीमीटर लंबा तथा 3-5 पालियों में विभक्त होता है । इसकी बाहरी सतह रोमयुक्त होती है । दलपुंज सफेद रंग का व पीली आभायुक्त तथा लगभग 3 सेंटीमीटर लंबा होता है । इसका फल सम्पुट या कैप्सूल होता है जो 1 मीटर तक लंबा, काष्ठीय तथा कुछ वक्राकार होता है । इस वृक्ष के पुष्पन तथा फल देने का समय अप्रैल से फरवरी के मध्य होता है ।

 

मध्य भारत (बस्तर, अमरकंटक व सरगुजा) के गोंड आदिवासी फल के साथ ही साथ जड़ों एवं तने की छाल के रस का भी सर्पदंश के उपचार में उपयोग करते हैं । सर्पदंश के अतिरिक्त इस वृक्ष का उपयोग कुछ अन्य रोगों के उपचार में भी किया जाता है । गोंड आदिवासी तने की छाल के हल्के गर्म रस का शरीर दर्द के उपचार में प्रयोग करते हैं । बैगा आदिवासी तने की छाल के रस को दही के साथ मिलाकर मासिक धर्म की अनियमितताओं को दूर करने के लिए देते हैं । बिछिया तथा धनवार आदिवासी पत्तियों के रस को ज्वर के उपचार में लाभकारी मानते हैं । बेघरा शिकारी इस वृक्ष के फल के चूर्ण को हल्के गर्म सरसों के तेल के साथ मिलाकर बनाए हुए लेप को चर्म रोग, गठिया तथा घावों पर लगाते हैं । चूंकि आदिवासी क्षेत्रों में सर्पदंश एक सामान्य घटना है, अतः आदिवासी छाल तथा फलों को एकत्र करके अपने पास रखते हैं । पर्यवेक्षणों से विदित हुआ है कि वृक्ष की संपूर्ण छाल उतार ली जाती है । साथ ही साथ आदिवासी कच्चे फलों को भी एकत्र करते हैं तथा इनका स्थानीय साप्ताहिक बाजारों में 5-10 रुपये प्रति फल की दर से औषधि के रूप में विक्रय करते हैं ।

 

मध्य भारत के क्षेत्रों में क्योंकि इस फल के वृक्ष के फलों को पकने के पहले ही तोड़ लिया जाता है, इसलिए वृक्षों का पुनरुत्पादन रुक जाता है । यही कारण है कि इसकी संख्या निरंतर घटती जा रही है तथा एक स्थान पर इसके कुछ ही सदस्य मिलते हैं । वास्तविकता यह है कि यह वृक्ष अपने प्राकृतिक आवास में जीवन के लिए संघर्षरत है एवं संकटापन्न होने की दिशा में अग्रसर है । यदि इसकी छाल एवं फलों का अति दोहन इसी प्रकार जारी रहा तो निकट भविष्य में यह मध्य भारत से विलुप्त हो जाएगा ।

 

संदर्भ :

  • http://tropical.theferns.info/image.php?id=Radermachera+xylocarpa

  • http://www.flowersofindia.net/catalog/slides/Padri%20html

चित्र सन्दर्भ : http://tropical.theferns.info/image.php?id=Radermachera+xylocarpa

 

-अजय कुमार झा, वरिष्ठ प्रबंधक (पर्यावरण)

तीस्ता VI जलविद्युत परियोजना