चित्र आभार – रितुमाला गुप्ता , वरिष्ठ प्रबंधक (पर्यावरण)

 

प्राचीन काल से ही भारत में जल के महत्व को समझते हुए जल संरक्षण एंव प्रबंधन के कार्य किए गए हैं। मुख्य रूप से “वर्षा जल संचय” – जल संरक्षण की एक प्राचीन परंपरा है जो वर्तमान परिदृश्य में अधिक प्रासंगिक हो गयी है। जल संरक्षण और प्रबंधन तकनीकों में अंतर्निहित मूल अवधारणा यह है कि वर्षा का पानी जब भी और जहां भी गिरे उस जल का संरक्षण किया जाना चाहिए। पुरातात्विक साक्ष्यों से पता चलता है कि जल संरक्षण और प्रबंधन की प्रथा, प्राचीन भारत के विज्ञान में गहराई से निहित है। प्राचीन भारत में बाढ़ और सूखा दोनों नियमित घटनाएँ थीं एवं यह एक कारण हो सकता है कि देश के हर क्षेत्र की भौगोलिक विषमताओं और सांस्कृतिक विशिष्टताओं के आधार पर पारंपरिक जल संरक्षण और प्रबंधन तकनीक उपायों का निर्माण किया गया होगा । हमारे देश के जल संरक्षण और प्रबंधन के विरासत को दर्शाने के लिए जल शक्ति मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा वर्ष 2020 में “”भारत की तरल संपत्ति के लिए बावड़ी खानदानी ख़ज़ाने  ( http://jalshakti-dowr.gov.in/sites/default/files/eBook/eBook-Stepwell/mobile/index.html”  पुस्तिका प्रकाशित कि गयी है और बावड़ी को खानदानी ख़ज़ानों  का दर्जा दिया गया है।

 

सदियों के अनुभव के आधार पर, भारतीयों ने आने वाले शुष्क मौसमों के लिए मानसूनी जल वर्षा को सँभालने, संचित और संग्रहित करने के लिए पारंपरिक जल संरक्षण ढांचों – “बावड़ी” की संरचनाओं का निर्माण उस समय की परिस्थिति व आवश्यकता के अनुसार किया गया। “बावड़ी” – मानव निर्मित कुएँ या तालाब हैं जो जल जमा करते हैं। सूखे की अवधि के दौरान इन बावड़ियों द्वारा अलवरण जल की उपलब्धता को सुनिश्चित किया जाता था। इस पुस्तक में समस्त भारत में बनाये गए सौ से अधिक अद्वितीय और दिलचस्प पुरातत्व धरोहरों – खज़ाने के हीरों (बावड़ियों) का विवरण व उनके स्थानों के सटीक जीपीएस निर्देशांक के साथ उल्लेख किया गया है।

 

मुख्य रूप से बावड़ी, भारत के पश्चिमी एवं दक्षिण-पश्चिमी राज्यों क्रमश: राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, मध्य प्रदेश सहित हरियाणा और दिल्ली में स्थित है जहाँ शुष्क उष्ण जलवायु की स्थिति है। कई जल संरक्षण संरचनाएं सूक्ष्मता से विकसित की गई जो उस क्षेत्र के लिए विशिष्ट थीं एवं कलात्मक रूप से उस क्षेत्र के मौजूदा शासकों से जुड़ी हुई थीं और समय के साथसाथ बावड़ियों के साथ विभिन्न संस्कृतियों का विकास भी हुआ  था। इन पारंपरिक जल संरक्षण तकनीकों में से कुछ अभी भी उपयोग में हैं, हालांकि आज कम लोकप्रिय हैं। समय के साथ बावड़ी उपेक्षित व  नष्ट हो रहे है और यह समृद्ध सांस्कृतिक विरासत विलुप्त होने के कगार पर भी हैं। लगभग हर साल वर्षा के प्रतिमान में परिवर्तन होने के कारण देश में जल संचयन की पारंपरिक प्रणाली को पुनर्जीवित करने के लिए प्राचीन उपाय “बावड़ी पर्यावरण के लिए, ” प्रभावी और अनुकूल भी है ।   पुरातत्व धरोहरों – खज़ाने के हीरों (बावड़ियों)  का सम्मान एवं   पुनर्स्थापित करना हम सब की जिम्मेदारी है ।

 

रितुमाला गुप्ता , वरिष्ठ प्रबंधक (पर्यावरण)

 

Ref: http://jalshakti-dowr.gov.in/sites/default/files/eBook/eBook-Stepwell/mobile/index.html