22 अप्रैल 1970 को पहली बार पृथ्वी दिवस तब मनाया गया जबकि यूनाईटेड स्टेट्स के दो हजार से अधिक विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों से अध्यापक और छात्र एक साथ इस कारण के लिये इकट्ठे हुए। उन्होंने शांतिपूर्ण तरीके से मार्च कर धरती के गिरते स्वास्थ्य की ओर विश्व का ध्यान खींचने की महत्वपूर्ण पहल की थी। जाने माने फिल्म और टेलीविजन अभिनेता एड्डी अल्बर्ट के जन्मदिवस पर इसे मनाये जाने का प्राथमिक कारण उनकी पर्यावरण चेतना तथा जागरूकता के लिये किया गया उनका कार्य माना जाता है। अलबर्ट ने अपने टेलिविजन शो “ग्रीन एंकर्स” में पर्यावरण के प्रति जन-चेतना फैलाने में महति भूमिका का निर्वहन किया था। यद्यपि इस दिवस के धरती के प्रति जागरूकता प्रसारित करने के लिये चयन किये जाने के अन्य कारण भी थे, उदाहरण के लिये, अप्रैल माह में प्रकृति अपने सर्वाधिक सौष्ठव में होती है जो लगाव की भावना के प्रसारण का सर्वोत्तम समय भी है। आज यह महत्वपूर्ण हो जाता है कि धरती की पीड़ा को हम समझें और उसके संरक्षण और नव-जीवन के लिये प्रयसरत हों।

 

पिछले दिनों (20 मार्च) विश्व गोरैया दिवस था। जैव-विलुप्तता का गोरैया से बड़ा उदाहरण देखने को नहीं मिलता। एक समय था जबकि गोरैया हमें घर-घर में नज़र आया करती थी किंतु अब वह तलाशने पर भी दिखाई नहीं पड़ती है। इसी तरह यदि अपने मष्तिष्क पर हम जोर दें तो जीवों-पादपों की एक लम्बी सूची तैयार हो सकती है जिन्हें हमने एक दशक में ही अपनी नजरों से ओझल होते हुए देखा है। आज विकास और विलुप्तता की यह एक असमान दौड़ है। तथ्य यह भी है कि जैव-विलुप्तता एक स्वाभाविक प्रक्रिया है तथा प्रकृति इसे शनै: शनै: अंजाम देती रहती है। प्रकृति जिन जीवों को अपने सुचारू संचालन में अनुपयुक्त पाती है उनसे पीछा छुडा लेती है। उदाहरण के लिए डायनासोर जो एक समय धरती पर व्यापकता से प्रसारित थे, आज विलुप्त प्राणी हैं। यह समझने योग्य बात है कि स्वाभाविक विलुप्तीकरण की प्रक्रिया में खतरा प्राय: उन अधिक सफल प्रजातियों पर होता है जो कम सफल प्रजातियों पर अपनी उपस्थिति फैला लेते हैं।

 

पृथ्वी पर बड़ी संख्या में विलुप्तताओं के पांच काल रहे हैं ये 4,400 लाख, 3,700 लाख, 2,500 लाख, 2,100 लाख एवं 650 लाख वर्ष पूर्व हुए थे। ये प्राकृतिक प्रक्रियाएं थीं। परंतु यह बात वर्तमान में हो रही विलुप्तताओं पर लागू नहीं होती। आज जीव-वनस्पतियां बहुत तेजी से और अस्वाभाविक प्रक्रियाओं के फलीभूत विलुप्त होती जा रही हैं। आज होने वाली विलुप्तताओं के लिये जीवजगत का वह प्राणी सबसे अधिक जिम्मेदार है जो इसके शीर्ष पर होने का दम्भ रखता है- अर्थात मनुष्य। एक सत्य यह है कि वर्तमान में मौजूद जीवों की संख्या पृथ्वी पर आज तक रहे कुल जीवों की मात्रा का महज एक प्रतिशत है जबकि लगभग निनानबे प्रतिशत जीवन अपनी प्रवास यात्रा समाप्त कर विलुप्त हो चुका है। सन् 1000 से 2000 के मध्य हुए प्रजातीय विलुप्तताओं में से अधिकांश मानवीय गतिविधियों के चलते प्राकृतिक आवासों के विनाश के कारण हुई हैं। हमें इस तथ्य को संज्ञान में लेते हुए ही सभी प्रकार के विकासोन्मुख कार्यों की योजना बनाने की आवश्यकता है। यह धरती सभी जीव-जंतुओं/पादपों की है, मनुष्य सर्वेसर्वा नहीं अपितु एक घटक मात्र है।

 

 

अरुण कुमार मिश्रा (कार्यपालक निदेशक)

पर्यावरण एवं विविधता प्रबंधन विभाग