ब्लॉग के पिछले विविध सम्पादकीयों में हमने अनेक पर्यावरण विषयों पर बात की है, इस अंक में जल संसाधन पर विचार करते हैं। एनएचपीसी की कार्यशैली के दृष्टिगत आज बात नदियों की कर लेते हैं। लगभग 329 मिलियन हेक्टेयर भौगोलिक क्षेत्रफल में फैले भारत देश को सम्पूर्णता से जानने के लिये इसकी नदियों और पर्वतों की समझ आवश्यक है। संस्कृति, धर्म एवं आध्यात्मिक जीवन के विकास से जुड़ी ये नदियाँ भारतीय जीवन का हृदय एवं आत्मा हैं। यह सौभाग्य है कि हमारे भू-भाग से बहने वाली कतिपय नदियों को विश्व की महानतम नदियों में गिना जाता है। भारतीय उप-महाद्वीप की प्रमुख नदियों के रूप में बारह को वर्गीकृत किया गया है, जिनका कुल आवाह क्षेत्रफल 252.8 मिलियन हेक्टेयर है। हमारी प्रमुख नदियों में गंगा-ब्रह्मपुत्र-मेघना तंत्र का आवाह क्षेत्रफल 110 मिलियन हेक्टेयर है जो कि देश की सभी प्रमुख नदियों के आवाह क्षेत्रफल का 43 प्रतिशत से अधिक है। सिन्धु (32.1 मिलियन हेक्टेयर), गोदावरी (31.3 मिलियन हेक्टेयर), कृष्णा (25.9 मिलियन हेक्टेयर) एवं महानदी (14.2 मिलियन हेक्टेयर) देश की अन्य प्रमुख नदियाँ हैं जिनका आवाह क्षेत्रफल 10 मिलियन हेक्टेयर से अधिक है। इसी प्रकार देश की मध्यम श्रेणी की नदियों की भी महति भूमिका है जिनका कुल आवाह क्षेत्रफल 25 मिलियन हेक्टेयर है। सुवर्णरेखा नदी, जिसका आवाह क्षेत्र 19 मिलियन हेक्टेयर है, देश की मध्यम श्रेणी की नदियों में सबसे बड़ी है। नदियाँ ही हमारी अर्थव्यवस्था की रीढ़ और समृद्धि का साधन हैं।

 

भूजल के अत्यधिक दोहन के कारण नदियों के प्रवाह में ही नहीं अपितु भूजल संसाधनों के स्तर में भी कमी दर्ज की गयी है। जलवायु परिवर्तन के कारण भी नदियों की जल उपलब्धता प्रभावित हो रही है। जल के देशभर में असमान उपलब्धता तथा कतिपय क्षेत्रों में विद्यमान रहने वाले जलसंकट का एक कारण है अनियमित वर्षा। आज हमारे पास जो उपलब्ध जलश्रोत हैं वे लगातार सिमट रहे हैं तथा अब प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता लगातार घट रही है। ऐसा नहीं है कि जल संसाधनों की कमी है अपितु उनके उचित प्रबंधन का अभाव प्रतीत होता है। भारत में विश्व के धरातलीय क्षेत्र का 2.5%, जल संसाधनों का 4% तथा कुल जनसंख्या का लगभग 16% समाहित है। प्रथमदृष्टया ही जल की मांग और आपूर्ति की विषमता का इससे अंदाजा लगाया जा सकता है। वर्षा से प्रतिवर्ष देश में लगभग 4000 घन किलोमीटर जल की प्राप्ति होती है। इस जल का अधिकांश हिस्सा रन-ऑफ अथवा अन्य कारणों से उपलब्ध नहीं होता। यही कारण है कि हमें विविध जल संग्रहण योजनाओं के निर्माण पर गहराई से विचार और कार्य करना चाहिये।  क्या हमें अपने जल संसाधनों के प्रबंधन और उनके समुचित संवर्धन के लिये एक दीर्घकालिक योजना बनाने की आवश्यकता नहीं है? कथनाशय यह है कि हमें जल को जीवन ही नहीं एक संसाधन के रूप में भी देखना चाहिये।

 

पिछले दिनों विभाग में सुदूर संवेदन एवं जीआईएस प्रयोगशाला का उद्घाटन माननीय अध्यक्ष एवं प्रबंध निदेशक महोदय द्वारा किया गया। मुझे अपेक्षा है कि इस तकनीक के माध्यम से हम पर्यावरण अध्ययन को अधिक वैज्ञानिक और व्यावहारिक बना सकेंगे। इसी तरह सचिव राजभाषा, गृह मंत्रालय द्वारा  पर्यावरण विभाग की बुकलेट  – “एनएचपीसी – हरित प्रयासों से सतत जलविद्युत विकास” का उद्घाटन किया गया। मैं ऐसे प्रयासों की सराहना करता हूँ और इसके व्यापक प्रसार की अपेक्षा रखता हूँ।

 

एन एस परमेश्वरन

कार्यपालक निदेशक (पर्यावरण एवं विविधता प्रबंधन) 

 

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