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शहर-दर-शहर सन्नाटे के जंगल बनते जा रहे हैं और हरे भर वन गुलजार हो गये हैं। आदमी घर के भीतर कैद रहने के लिये बाध्य है जबकि पशु-पक्षी मानो जश्न-ए-आजादी मना रहे हैं। घर की खिड़की खोल, जरा सलाखों से बाहर तो देखिये, ऐसा नीला आसमान देखे कितना समय गुजर गया? रात बाहर बालकनी में निकल कर आकाश को निहार, आप पायेंगे कि सितारे कुछ अधिक हैं, मोतियों जैसे जग-मग-जग-मग कर रहे हैं। कोरोना काल में इन्सान बेबस हो गया है जबकि उसका परिवेश और पर्यावरण नये परिधान पहन सजीला-छबीला हो चला है। अपनी जन्मभूमि चीन के वुहान शहर से दुनिया भर में फैला कोरोना वायरस मानव जनसंख्या पर और अर्थव्यवस्था पर चाहे जैसा भी प्रभाव डाल रहा हो, सकारात्मक बात यह है  कि यह विभीषिका जीवन जीने के दर्शनशास्त्र को सामने रख रही है।

 

धरती यदि बोल पाती तो अवश्य कहती कि उसकी संततियों में से नालायक मनुष्यों को लॉकडाउन में ही रहने की आवश्यकता है। देखो न, वे बंद हैं तो हवा साफ हो गयी, पानी निर्मल हो गया, मिट्टी में जहर घटने लगा। पंजाब के जालंधर में रहने वालों को वहां से हिमाचल प्रदेश में स्थित धौलाधार पर्वत श्रृंखला की चोटियां दिख रहीं हैं, आश्चर्य है न? यह पहाड़ तो हमेशा से ही जालंधर से देखा जा सकता था, लेकिन धूल-धुंए ने यह सच भुला ही दिया। दिल्ली-आगरा में जमुना का पानी निर्मल हो गया। फेन और झाग ले कर बहने वाली, गंदा नाला बन चुकी यमुना आज अपने रंग, ढंग और चाल पर इताराती नजर आ रही है। यमुना के प्रदूषण में सत्तर प्रतिशत योगदान घरेलू कचरे का है और तीस प्रतिशत औद्योगिक गंदगी इसमें समाहित होती है। अब लोग घर के भीतर हैं और उद्योगों पर ताले हैं। इस समय यमुना की प्रसन्नता को सुनना चाहे तो उसकी कलकल में सुने। साउथ एशिया नेटवर्क ऑन डैम्स, रिवर्स एंड पीपल (एसएएनडीआरपी) ने गंगा और कावेरी नदियों में भी आये ऐसे ही बदलाव का संज्ञान लिया है। यह महसूस किया जा सकता है कि गंगा स्वच्छता अभियान में अरबों रुपये स्वाहा हुए लेकिन जो न हो सका वह कोरोना काल के लॉकडाउन अवधि में हो गया।

 

भारत ही नहीं सारी दुनियाँ से ऐसी तस्वीरें सामने आ रही हैं कि हलचल-विहीन सड़कों पर जंगली जानवर धड़ल्ले  से आ जा रहे हैं। उत्तराखंड की राजधानी देहरादून में गजराज निर्भीकता से टहलते देखे गये, ऐसा ही एक दृश्य कर्नाटक के कोडागु जिले में सामने आया जहाँ हाथियों को सड़कों पर मस्ती करते, चहलकदमी करते देखा गया। इतना ही नहीं नोएडा के जीआईपी मॉल के पास एक नीलगाय को सड़क पार करते देखा गया है तो हरिद्वार में सडकों पर सांभर, चीताल और हिरण चहलकदमी कर रहे है। गुड़गांव के गलेरिया मार्केट में मोरों का झुंड झूम रहा था वहीं केरल के कोझिकोड में सडकों पर बिलाव देखे जा रहे हैं। कई स्थान भयकारक भी हो गये हैं क्योंकि तेंदुओं को बस्तियों में आते देखा जा रहा है। मनुष्य और पशु के बीच हमेशा दुराव रहा है, मनुष्य ने अपने हिस्से की जमीन से उन्हे बाहर निकाल दिया है, आज क्या वे यह बताने के लिये शहरों में चहलकदमीं कर हैं कि यह हमारी जमीन है?

 

इतना ही होता तो बात न थी लेकिन अपनी धरती पर कितने बडे बोझ हैं इन्सान, बेल्जियम की रॉयल ऑब्जर्वेट्री के विशेषज्ञ बताते हैं कि इन दिनों इंसान स्थिर क्या हुए धरती की ऊपरी सतह पर कंपन यहाँ तक कि सीस्मिक नॉईज घट गया। इसका सरल शब्दों में मतलब है कि धरती की बाहरी सतह यानि क्रस्ट पर होने वाले कंपन के कारण भीतर एक शोर सुनाई पड़ता है, उसके फेंफडे अब गहरी गहरी राहत की सांस ले रहे हैं। 1 से 20 हर्त्ज वाली इन्फ्रासाउंड फ्रीक्वेंसी इंसानी गतिविधियों से पैदा होती हैं इसमें तीस से पचास प्रतिशत की गिरावट देखी गयी है। इसका एक अर्थ यह भी है कि मानवजनित कार्यों के थमते ही प्रकृति ने स्वयं को सुधारात्मक गतिविधियों में लगा दिया है। पर्यावरण में ऐसे गुणात्मक बदलवों  को देख कर अब विशेषज्ञों का मानना है कि महामारी से निजात पाने के बाद भी विश्व को समय समय पर लॉकडाउन जैसे विकल्पों को आजमाना चाहिये। मित्रों, कोरोनाकाल आज नहीं तो कल समाप्त हो जायेगा, क्या हम इस कठिन समय से कुछ सीख सके है?

 

 

-राजीव रंजन प्रसाद

वरिष्ठ प्रबंधक (पर्यावरण )