एशिया का सबसे साफ-सुथरा गाँव भारत में है इस बात का गर्व किसे नहीं होगा? मेघों की धरती मेघालय के पूर्वी खासी हिल्स जिले में अवस्थित एक छोटा सा गाँव मावल्यान्नॉग अब एक पर्यटक स्थल में परिवर्तित हो गया है। जिस बात ने मुझे सर्वाधिक प्रभावित किया वह था किसी गाँव की स्वच्छता को देखने के लिये विकसित हुआ पर्यटन। पन्चानबे परिवारों का गाँव जिसकी कुल आबादी लगभग पाँच सौ व्यक्ति है, उन्होंने ऐसा क्या विशेष किया है जिसके कारण उन्हें एशिया के नक्शे पर महत्वपूर्ण स्थान हासिल हुआ। यह बात भी सु:खद है कि इस गाँव की एक बड़ी विशेषता मातृसत्तात्मक परम्परा तो है ही यहाँ का प्रत्येक व्यक्ति साक्षर भी है। गाँव में प्रवेश करने से पूर्व ही एक दृष्टि डालने पर बहुत सी बाते स्पष्ट हो जाती हैं। पहली यह कि परम्परा और आधुनिकता का बेहतर समायोजन किया गया है इसलिये सडक में निश्चित दूरी पर सौर ऊर्जा से चलने वाली लाईटें लगाई गयी हैं साथ ही प्रत्येक कुछ कदम पर बाँस के तिकोने आकार के टोकरे भी आपको लटके हुए मिलेंगे जिसे आप कूडादान कहते हुए एकबार हिचकेंगे अवश्य। इन कचरा-कूडा सहेजने के लिये लगायी गयी बाँस की टोकरियों ने गाँव की कलात्मक अभिरुचि को अभिव्यक्त किया है तथा सुन्दरता प्रदान की है।

 

भारतीय गाँव की अवधारणा में स्वच्छता को अधिक प्राथमिकता प्राप्त नहीं है। हम “गोरी तेरा गाँव बड़ा प्यारा” जैसे गीतों से झूम अवश्य उठते हैं किंतु मक्खियों से  भिनभिनाते घरों, अनपढता और जनसंख्या के दबाव से जूझते परिवारों की घुटन को देख आह भर रह जाते हैं। आदर्श गाँव की अनेक संकल्पनायें हैं और वे केवल कोरी कल्पनायें बन कर अपकी कागजी-मगजमार योजनाओं की भेंट चढती हुई ही दिखाई पडती हैं। बहुत कम गाँव ऐसे हैं जहाँ स्कूल, चिकित्सालय, डाकघर या बैंक जैसी बुनियादी सुविधायें उनकी परिधि के भीतर ही उपलब्ध हों। शौचालयों पर चर्चा के इस दौर में किसी भी गाँव से हो कर गुजरती पक्की सडकों के दोनो ओर बिखरी गंदगी का साम्राज्य आमतौर पर देखा जा सकता है। जिस भारत को गाँवों का देश कहा जाता है वहाँ आप एक व्यवस्थित गाँव को तलाशते थक जायेंगे। मैं यह नहीं कहता कि अपवाद नहीं है, निजी प्रयासों अथवा सामूहिक दायित्वों के निर्वहन ने अनेक गाँवों की तकदीर और तस्वीर भी बदली है तथापि हम भारत को एक सुन्दर, साक्षर और स्वच्छ देश बनाने की दिशा में बहुत पीछे रह गये हैं।

 

मावल्यान्नॉग में बाँस के बने सुन्दर और नक्काशीदर घर हैं जहाँ जन-जीवन सामान्य दिखाई पडता है। ग्रामीण, पर्यटक आगमन के इतने आदी हो गये हैं कि उन्हें इस बात से कोई अंतर नहीं लगता कि लोग उन्हें अचरज से देख रहे हैं, उनकी जीवन शैली को समझने के कोशिश कर रहे है, उनकी तस्वीरें ले रहे हैं। अपितु मैने यहाँ के लोगों में इस बात का गर्व देखा कि वे विशिष्ठ हैं और उन्होंने जो अलग कर दिखाया है, आज उसका ही प्रतिसार प्राप्त हुआ है। गाँव को प्रदूषण से मुक्त रखने के लिये जैविक वस्तुओं का जीवन व कृषि में प्रयोग के साथ ही पॉलिथीन पर प्रतिबन्ध जैसे आवश्यक कदम यहाँ लोगों तथा प्रशासन ने सख्ती से उठाये हैं। चूंकि अजैविक कचरा कम से कम  एकत्रित होता है अतत: यहाँ उपलब्ध कचरे को अलग करना व उनसे जैविक खाद प्राप्त करना भी सहज है, इससे बेहतर कचरा निस्तारण योजना क्या हो सकती है? यही कारण है कि लहलहाती खेती, खुश दिखते वृक्षों और हर घर के आगे करीने से लगाये गये पौधों में मुस्कुराते फूलों पर बैठी तितली स्वत: बताती है कि क्यों इस गाँव को भगवान का बग़ीचा कहा जाता है।

 

स्वच्छता अपने भीतर से पनपने वाली अवधारणा है। भारत को स्वच्छ रखने का लक्ष्य झाडू पकड कर सेल्फी खिंचाने से कदापि हासिल नहीं हो सकता अपितु इसके लिये मावल्यान्नॉग के ग्रामीणों जैसी सोच-समझ और सामूहिक कर्तव्य निर्वाह की दृष्टि होनी चाहिये। इस गाँव में ‘सरकार सफाई नहीं करती’, ‘स्वच्छता कर्मी नहीं आता’, ‘कचरा पडा है कोई नहीं उठाता’, ‘पड़ोसी मेरे घर अपना कूडा डाल जाता है’ जैसी शिकायतें नहीं हैं अपितु हर व्यक्ति स्वयं गाँव का स्वच्छताकर्मी है। मैने एक बूढे को देखा जो सड़क के किनारे की खरपतवार को उखाड रहा था और पूछने पर ज्ञात हुआ कि यह उसने अपने खाली समय का उपयोग किया है। गाँव का कोई भी व्यक्ति सड़क पर पडे कूडे-कचरे को अनदेखा नहीं करता अपितु स्वयं उसे उठा कर कूडेदान में डाल देना अपना कर्तव्य समझता है। मावल्यान्नॉग के लोगों की यही दृष्टि और सोच रही तो यह गाँव एक दिन निश्चित ही विश्व का सबसे सुन्दर गाँव बनेगा।

 

–  राजीव रंजन प्रसाद, वरिष्ठ प्रबंधक(पर्यावरण)

 

“बेहतर साफ-सफाई से ही भारत के गांवों को आदर्श बनाया जा सकता है ” – महात्मा गांधी