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परिचय:

स्नो ट्राउट (Snow Trout), साइप्रिनिडी (Cyprinidae) परिवार एवं साइजोथोरैक्सिन उप-परिवार से संबंधित मछलियों की एक प्रजाति है, जिनका भारतीय उपमहाद्वीप के हिमालयी और उप-हिमालयी क्षेत्रों में सर्वव्यापी वितरण है। ठंडे पानी वाले क्षेत्र की खाद्य मछलियों के समूह में इनका महत्वपूर्ण योगदान है। पूरी दुनिया में स्नो ट्राउट की वितरित 15 जेनेरा में से सौ से अधिक प्रजातियां शामिल हैं। भारतीय उप-हिमालयी क्षेत्र में स्नो ट्राउट की कुल सात जेनेरा में से लगभग 17 प्रजातियां ठंडे पानी के मत्स्य पालन में योगदान देती हैं। मछलियों के इस समूह के पास एक स्ट्रीम लाइन बॉडी, कम स्केल, निचले होंठ में मोडीफिकेशन, छोटी बार्बल्स या बार्बल्स की पूर्ण अनुपस्थिति और लंबी पूंछ (कौडल पेडंकल) है।

 

अधिकांश प्रजातियां कुल दो जेनेरा साइजोथोरैक्स और साइजोथोरैक्थिस से संबंधित हैं। इन दो जेनेरा को थूथन (snout) के आकार के आधार पर व्यापक रूप से विभेदित किया गया है। साइजोथोरैक्स के पास एक भोथरा थूथन (blunt snout)  और सेक्टोरियल होंठ होता है, जबकि साइजोथोरैक्थिस के पास सक्टोरियल होंठ के बिना एक नुकीला थूथन (pointed snout) होता है। प्रमुख प्रजातियों में से साइजोथोरैक्स रिचार्डसोनी, साइजोथोरैक्स प्लागीस्टोमस, साइजोथोरैक्थिस एसोसिनस, साइजोथोरैक्थिस लांगिपिनीस, साइजोथोरैक्थिस प्लानिफ्रोन्स, साइजोथोरैक्थिस माइक्रोपोगोन, साइजोथोरैक्थिस कर्विफ्रॉन्स, साइजोथोरैक्थिस नासस, साइजोथोरैक्थिस हुगेली, साइजोथोरैक्थिस लैबियटस और साइजोथोरैक्थिस प्रोगास्टस है। अन्य जेनेरा जैसे शिज़ोपीज नाइजर, शिज़ोपीज माइक्रोप्रोगोन और साइजोपीगोप्सिस स्टॉलिकज़काई, डिप्टीकस मैकुलैटस, जिमनोसिप्रिस बिस्वासी और टिकोबार्बस कनिरोस्ट्रिस प्रजातियां भी आमतौर पर इस समूह में शामिल हैं।

 

जीवविज्ञान:

मछलियों का यह समूह पूरी तरह से धीमी वृद्धि पैटर्न प्रदर्शित करती है और आम तौर पर दो से तीन वर्ष की आयु में परिपक्वता प्राप्त करती है। स्नो ट्राउट में कुछ अनुकूल पालन योग्य गुण होते हैं जैसेकि यह प्रकृति में यूरीथर्मल, कैप्टिव हालत के लिए उपयुक्त और पूरक फ़ीड स्वीकार करती है। हालांकि यह एक पसंदीदा खाद्य मछली है, परंतु इसकी धीमी वृद्धि गति और उचित फ़ीड विकसित करने से जुड़े समस्याओं के कारण इस प्रजाति के जलीय कृषि प्रथाओं को अभी भी पूरी तरह से अपनाया नहीं गया है।

 

वितरण:

भारतीय हिमालयन क्षेत्र में स्नो ट्राउट का अद्वितीय वितरण पैटर्न है, जैसे कि साइजोथोरैक्थिस एसोसिनस, साइजोथोरैक्थिस लांगिपिनीस, साइजोथोरैक्थिस प्लानिफ्रोन्स,साइजोथोरैक्थिस माइक्रोपोगोन, साइजोथोरैक्थिस कर्विफ्रॉन्स और साइजोथोरैक्थिस लैबियटस कश्मीर और लद्दाख क्षेत्र के लिए स्थानिक है। हालांकि हिमालयन क्षेत्र में साइजोथोरैक्थिस प्रोगास्टस की व्यापक उपस्थिति दर्ज है लेकिन फिर भी पूर्वी क्षेत्रों  में इनका वितरण सीमित पाया गया है। साइजोथोरैक्स रिचार्डसोनी और साइजोथोरैक्स प्लागीस्टोमस हिमालय की फुट हिल्स एवं साथ वाले स्ट्रीम में पाए जाते हैं। विभिन्न प्रजातियों की अधिकतम लंबाई और वजन क्रमश: 25-60 सेमी और 1.5-5.0 किलो तक रिपोर्ट किया गया है।

 

गंगा नदी में स्नो ट्राउट की स्थिति: चूंकि स्नो ट्राउट स्वच्छ,ठंड और प्रदूषण रहित पानी में रहती है अतः गंगा नदी की प्रमुख धारा (भागीरथी नदी) में गंगाणी और देवप्रयाग के बीच एवं इसकी महत्वपूर्ण सहायक अलकनंदा नदी में विष्णुप्रयाग के डाउनस्ट्रीम से देवप्रयाग तक सीमित पायी गई है। स्नो ट्राउट खाद्य श्रृंखला में लगभग एक शीर्ष उपभोक्ता की भूमिका अदा करती है। इसके आधिपत्य (predominance) और आकार के कारण, इन्हें विस्तार (reach) में सबसे महत्वपूर्ण मूल तत्व (keystone) प्रजाति के रूप में वर्गीकृत किया जाता है जो अन्य प्रजातियों के साथ-साथ पारिस्थितिकी तंत्र के कार्य को भी नियंत्रित करती है।

 

प्रवासन एवं प्रजनन:

ये प्रायः सर्दियों के महीनों के दौरान प्रवासन करती है। जब ग्रेटर हिमालयी पानी का तापमान हिमांक बिन्दु के निकट पहुंच जाता है, तब इन्हें अंडे देने के लिए उपयुक्त स्थान की खोज में झरना आधारित धाराओं की तरफ नीचे की ओर प्रवासन करना पड़ता है। इनको अंडे देने के लिए अनुकूल तापमान 18-21.5 डिग्री सेल्सियस है। स्नो ट्राउट पोटामोड्रोमस प्रकृति की है, जो जुलाई-अगस्त महीने में प्रजनन के लिए धाराओं के निचले हिस्सों तक पहुंच जाती है और अगस्त-अक्टूबर महीनों के दौरान अंडे देती है। ये नदियों के किनारे छिछले पानी (30-60 सेमी गहराई) इलाकों में जहाँ बजरी सतह के साथ साफ पानी होता है, वहाँ अंडे देती है, जिसके हैचिंग में 50-55 घंटों का समय लगता है। ये 45 दिनों में 18-20 मिमी (फ्राई चरण) तक बढ़ जाती हैं। ये खाने और परिपक्व होने के लिए पूल लौटने से पहले कुछ समय के लिए हैचिंग क्षेत्र में ही रहती हैं।

 

इस समूह के मछलियों की अंडे देने (fecundity) की औसत संख्या 10,000-40,000 प्रति किलोग्राम वजन के बीच है। साइजोथोरैक्स रिचार्डसोनी की प्रति किलो वजन, कुल अंडे देने (fecundity) की संख्या 20,000-25,000 है। इनका स्पौनिंग क्षेत्र प्रायः बहुत ही मंद जल प्रवाह के साथ छिछले साफ पानी,रेतीले और बजरी तलहटी के रूप में देखा जाता है। विभिन्न प्रजातियों में स्पौनिंग सीजन भिन्न-भिन्न होता है, जो कि विभिन्न ऊंचाइयों के तापीय व्यवस्था (thermal regime) पर निर्भर करता है। वर्ष के विभिन्न महीनों में समुद्र तल से विभिन्न ऊंचाईयों पर इन मछलियों को 18.0-21.5 डिग्री सेल्सियस के पानी के तापमान पर स्पौनींग करते पाया गया है। यह देखा गया है कि साइजोथोरैक्स रिचार्डसोनी और साइजोथोरैक्स प्लागीस्टोमस गर्मियों की शुरुआत में प्रजनन करती हैं जबकि शिज़ोपीज नाइजर के लिए सबसे ज़्यादा प्रजनन का मौसम फरवरी के आखिरी सप्ताह से अप्रैल के मध्य तक रहता है जबकि कश्मीर में साइजोथोरैक्थिस कर्विफ्रॉन्स जून महीने में अधिकतम प्रजनन के साथ मई से जुलाई तक प्रजनन करती है।

 

कृत्रिम प्रजनन:

नब्बे के दशक के दरम्यान ही कुमाऊं में फील्ड सेंटर,आईसीएआर-डीसीएफआर, चिरापनी, चंपावत में साइजोथोरैक्स रिचार्डसोनी को प्रजनन कराकर सफलता हासिल की गई थी। सिंथेटिक हार्मोन का उपयोग करके कुछ स्नो ट्राउट प्रजातियों (साइजोथोरैक्स रिचार्डसोनी, शिज़ोपीज नाइजर) की प्रेरित प्रजनन कारवाई गई थी। भारत में साइजोथोरैक्स रिचार्डसोनी, साइजोथोरैक्थिस एसोसिनस, शिज़ोपीज नाइजर, शिज़ोपीज माइक्रोप्रोगोन,साइजोथोरैक्थिस लांगिपिनीस,साइजोथोरैक्थिस कर्विफ्रॉन्स का वाइल्ड स्टॉक से बीज उत्पादन की शुरुआती सफलता कश्मीर में सन 1980 के दरम्यान ही मिली थी, परंतु फार्म में विकसित ब्रूड स्टॉक का बीज उत्पादन का व्यवहार्य तकनीक (viable technology) का विकास अभी तक आरंभिक अवस्था में ही है।

 

सहगल (1974) ने साइजोथोरैक्थिस प्लानिफ्रोन्स, साइजोथोरैक्थिस कर्विफ्रॉन्स और साइजोथोरैक्स प्लागीस्टोमस से अंडों के संग्रह और कृत्रिम निषेचन के साथ प्रयोग शुरू किए थे। ये तीनों मछलियाँ झील वूलर से बहने वाली दो धाराओं में अंडे देती हैं। इसके बाद,हिमाचल प्रदेश की कई धाराओं से पकड़े गए परिपक्व मछलियों का उपयोग करके साइजोथोरैक्स प्लागीस्टोमस के अंडे इकट्ठे किए गए एवं पोस्ट-लार्वा तथा फ्राई तक सफलतापूर्वक बढ़ाया गया। डल झील से शिज़ोपीज नाइजर के अंडे इकट्ठे किए गए, जिसे कृत्रिम रूप से निषेचित करवाकर 10-40% तक की हेचिंग दर प्राप्त की गई। साइजोथोरैक्थिस एसोसिनस का चलने वाले पानी प्रणाली (flow through system) में प्रेरित प्रजनन, कृत्रिम निषेचन एवं इंक्यूबेशन के परिणामस्वरूप 30-55% संचयी हैचिंग दर प्राप्त किया गया। उसके आगे, कृत्रिम फीड पर साइजोथोरैक्थिस एसोसिनस के फ्राई और फिंगरलिंग्स आकार तक बढ़ाने के लिए कुछ सफलता मिली। नदियों और झीलों में रिलीज के लिए तैयार एक पूरी तरह से जीवक्षम फिंगरलिंग चरण प्राप्त करने के लिए अभी भी साइजोथोरैसिन बीज उत्पादन पर काम किया जाना जारी है। इस प्रजाति का हाइपोफाइजेशन तकनीक द्वारा प्रेरित प्रजनन कराने में अभी तक सफलता हासिल नहीं हुई है।

 

साइजोथोरैक्स रिचार्डसोनी का आकृति विश्लेषण: स्नो ट्राउट प्रजाति की सभी मछलियों में साइजोथोरैक्स रिचार्डसोनी का विशिष्ठ स्थान है। इसको लोकप्रिय रूप में स्नो ट्राउट एवं एसेला के नाम से भी जाना जाता है। यह मछली 60 सेमी के अधिकतम आकार तक पहुँच जाती है। हालांकि ज्यादातर मछलियाँ 20-25.5 सेमी के बीच होती है। यह 15-20 सेमी (100 ग्राम) प्रति वर्ष की दर से बढ़ती है। साइजोथोरैक्स रिचार्डसोनी का मुंह वेंट्रली तिरछा, निचले होंठ के साथ एक मुक्त पिछला किनारा (free posterior edge) होता है, जो चिपकने वाले चूसक (adhesive  sucker) के रूप में कार्य करता है। निचले होंठ का भीतरी हिस्सा नरम हड्डी (cartilage) से कवर किया रहता है। स्नो ट्राउट का सिर पतला होता है तथा इनका विस्तारित शरीर 28.4 मीटर/सेकेंड के मजबूत प्रवाह का प्रतिरोध करने के लिए सुव्यवस्थित होता है। इनका शरीर छोटे सिलवरी साइक्लोईड स्केल से एवं पेट बड़े भूरे पपड़ी (scale) से ढका हुआ होता है। थूथन (snout) पर चार छोटे-छोटे बार्बल्स होते हैं।

 

साइजोथोरैक्स रिचार्डसोनी का आवास: स्नो ट्राउट 7.2-22 डिग्री सेल्सियस के बीच ठंडे पानी को पसंद करती है। यह डिमर्सल, फाइटोफैगस और पोटामोड्रोमस प्रवृति की होती है। वयस्क मछलियाँ पूल (13 मीटर गहराई) और रैपिड्स पसंद करते हैं। ये पत्थरों और परिपक्व कोबल्स जो स्लिमी एल्गल सामग्री से ढका रहता है, को सबस्ट्रैटम के रूप में पसंद करते हैं।

 

साइजोथोरैक्स रिचार्डसोनी का वितरण:

स्नो ट्राउट की विभिन्न प्रजातियों में से, स्थानीय रूप से ‘एसेला’ के रूप में जानी जाने वाली साइजोथोरैक्स रिचार्डसोनी का भारतीय हिमालयन क्षेत्र में व्यापक रूप से वितरण है। यह भारतीय हिमालयन क्षेत्र में उत्तर-पश्चिम में लद्दाख से पूर्व में सादिया तक विस्तृत है। हालांकि गंगा नदी बेसिन में यह हिमालयी और उप हिमालयी क्षेत्रों में जम्मू-कश्मीर से नैनीताल तक नदियों, तालाबों और झीलों में वितरित है। यह प्रजाति ग्रेटर और लेसर हिमालयन क्षेत्र में स्नो-मेल्ट और ग्लेशियर-फेड वाली धाराओं का एक इनहैबीटैंट है। हिमालयन पानी में इनका मत्स्यपालन या तो निर्वाह (subsistence) के रूप में या मनोरंजक मात्स्यिकी (recreational fishery) के रूप में विद्धमान है। चूंकि पर्वत धाराएं ज्यादा मछली उत्पादन का समर्थन नहीं करती हैं, इसलिए इनका वाणिज्यिक मत्स्य पालन काफी सीमित है। अपलैंड नदी प्रणाली में अकेले यह प्रजाति कुल मछली पकड़ का 60-70% योगदान देती है। ये ज्यादातर कश्मीर से लेकर उत्तराखंड तक इंडस और गंगा नदी प्रणाली की विभिन्न धाराओं में बहुतायत संख्या में पकड़ी गयी हैं।

 

साइजोथोरैक्स रिचार्डसोनी की फीडिंग: स्नो ट्राउट की खाने की आदत काफी हद तक शाकाहारी है और ये ज्यादातर पेरिफाईटोनिक फीडर हैं। चूंकि यह मछली ठेठ रूप से एक  बेंथिक पोषक भी है, इसलिए इनका मुंह नदियों के तलहटी सतह पर चट्टानों, पत्थरों आदि पर बढ़ते माइक्रोबायोटा को ग्रहण करने के लिए अनुकूल होता है।

 

संरक्षण की आवश्यकता एवं उपाय:

भारतीय नदियों और पहाड़ी धाराओं में स्नो ट्राउट मछली की प्राकृतिक आबादी में मात्रात्मक और गुणात्मक गिरावट आई है। ठंडे पानी के मत्स्यिकी के लिए प्रमुख खतरों में से तेजी से पर्यावरणीय पतन (rapid environmental degradation), नदी बांधीकरण के कारण उपयुक्त आवासों की कमी, मछली पकड़ने की अत्यधिक और विनाशकारी विधि, इत्यादि शामिल है। यह सामान्य रूप से संशाधनों और विशेष रूप से मछली संशाधनों पर भारी दबाव पैदा कर रहा है। विभिन्न नदियों और हिमालयन नदियों में इनकी संख्या में गिरावट की प्रवृत्ति के कारण,आईयूसीएन द्वारा साइजोथोरैक्स रिचार्डसोनी को IUCN के रेड लिस्ट में अतिसंवेदन-शील (Vulnerable) प्रजाति के रूप में सूचीबद्ध किया गया है।

 

साइजोथोरैसिन का पालन अभी तक अपने प्रयोगात्मक चरण में ही है। कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि विदेशी कॉमन कार्प की भारतीय नदियों में समावेशन के कारण भी कश्मीर घाटी के झीलों के लौकिक वातावरण में साइजोथोरैसिन मत्स्यपालन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। अतः इसे सतत आधार (sustainable basis) पर उपयोग के अलावा संरक्षण करने की भी विशेष आवश्यकता है। नदी में धारा प्रवाह के पैटर्न में परिवर्तन और कई जलविद्युत जलाशयों और मोड़ों के अस्तित्व के कारण,अनुदैर्ध्य और पार्श्व संयोजकता पर प्रभाव पड़ने के परिणाम स्वरूप स्नो ट्राउट का प्रवासन मार्ग और प्रजनन चक्र प्रभावित होता है। तदनुसार बांध/बैराज के कारण ट्राउट के प्रवासन में आ रही बाधा को दूर करने के लिए कई कम ऊँचाई वाले बाँधों में मछली पास/ मछली सीढ़ी का निर्माण भी किया गया है। भारत के कई राज्यों जैसे पंजाब में माधोपुर बैराज (रावी नदी), रोपर बैराज एवं फिरोजपुर  बैराज (सतलज नदी), उत्तराखंड में बनबस्सा बैराज (शारदा नदी), हिमाचल प्रदेश में लारजी बैराज (व्यास नदी), जम्मू & कश्मीर, उत्तराखंड एवं पश्चिम बंगाल में एनएचपीसी द्वारा बनवाए गए क्रमशः उरी-I बैराज (झेलम नदी), टनकपुर बैराज (शारदा नदी) एवं तीस्ता लो डैम –III बैराज (तीस्ता नदी), तीस्ता लो डैम –IV बैराज (तीस्ता नदी) में फिश-लैडर का निर्माण किया गया है।

 

इसके अतिरिक्त एनएचपीसी के विभिन्न जल-विद्युत परियोजनाओं जैसे हिमाचल प्रदेश ,में स्थित चमेरा –II , चमेरा –III, पार्बती –II एवं पार्बती –III पावर स्टेशन ; जम्मू & कश्मीर में स्थित चुटक, निम्मो बाजगो, सेवा-II एवं उरी-II पावर स्टेशन तथा सिक्किम में स्थित तीस्ता-V पावर स्टेशन में मत्स्य प्रबंधन योजना (Fisheries Management Plan) के अंतर्गत फिश हैचरी/ फिश फार्म  की स्थापना की गई है, जहाँ कृत्रिम प्रजनन की सहायता से मछलियों का बीज उत्पादन किया जाता है। इन फिश हैचरी/ फिश फार्म का मुख्य उद्देश्य नदी घाटियों का पारिस्थितीक विकास एवं आसपास के क्षेत्र के किसानों को तकनीकी सुविधाएँ मुहैया करा कर एवं मछलियों के बीज (Fry/ Fingerling) उपलब्ध करा कर उन्हें इस क्षेत्र में समृद्ध बनाना है। एनएचपीसी द्वारा रेंचिंग कार्यक्रम के तहत नदी घाटियों के पारिस्थितिक विकास के लिए मछलियों के अंगुलिकाओं (fingerlings) को नदी में  स्टौक भी किया जाता है । इसके अलावा बांध के अनुप्रवाह (downstream) में पर्यावरणीय प्रवाह (environmental flow) का प्रावधान रखा जाता है, जिससे स्नो ट्राउट के साथ-साथ अन्य मछलियों के मुक्त आवागमन एवं प्रजनन के लिए पानी की उपयुक्त आवश्यकताओं को पूरा किया जा सके।

 


– डॉ. एस. के. बाजपेयी, उप महाप्रबंधक (पर्यावरण)

 – मनीष कुमार, सहायक प्रबंधक (मत्स्य)

 

(राजभाषा ज्योति, अंक 34, अक्टूबर’18 – मार्च,19 में प्रकाशित)

 

“नदियों को साफ रखकर हम अपनी सभ्यता को जिंदा रख सकते हैं” – महात्मा गांधी