निर्बाध हूँ मैं……..
उमड़ने दो कि हूं मैं नदी इस ओर से उस छोर तक बहुत ही लंबा सफर है मेरा मैं हूँ बेकल-मनचली— सागर से मिलने की तमन्ना लिए बह रही हूं अनवरत उस सदी से इस सदी निर्बाध हूँ मैं, ना बांधो मुझे उमड़ने दो कि हूं मैं नदी
निर्बाध हूं मैं…….. बहने दो कि हूं मैं हवा पेड़ों-पहाड़ों-बादलों झीलों-झरनों-बागों में भरने दो मुझे चौकड़ी मैं हूं मनमौजी-आवारा तंग गलियों में है घुटता दम मेरा न रंग है, न रूप ही बन जाती हूं वैसी जैसी जब जहां जिसने है रखा निर्बाध हूं मैं, न रोको मुझे बहने दो कि हूं मैं हवा
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निर्बाध हूं मैं …….
लहराने दो कि हूं मैं सागर घमंडी-गुस्सैल-विकराल शांत-अथाह-उदार न रखता किसी का दिया कुछ कर देता हूं उसको जिसका है वापस बादलों का संदेशा भेज पर्वतों को बरसा कर बदरिया प्रेम-रस भर देता हूँ धरती का गागर निर्बाध हूं मैं, न छेड़ो मुझे लहराने दो कि हूं मैं सागर
निर्बाध हूं मैं ….. खिलने दो कि हूं मैं प्रकृति मुझसे तुम हो, तुमसे मैं मैं जीवनदायी -पालनहारी रहने दो मुझे वैसी ही जैसी मैं सदियों से थी रही निर्बाध हूं मैं, न टोको मुझे खिलने दो कि हूं मैं प्रकृति
पूजा सुन्डीउप प्रबंधक (पर्यावरण)पर्यावरण एवं विविधता प्रबंधन विभाग |
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