सरल शब्दों में वनीय वृक्षों तथा फसलों की संयुक्त कृषि को कृषि वानिकी या एग्रोफारेस्ट्री कहते हैं । जबकि विस्तृत रूप में कृषिवानिकी एक प्रतिपालनीय भूमि प्रबंधन तंत्र है जो भूमि की उत्पादन शक्ति को बढ़ाता है एवं एक साथ अथवा क्रमिक रूप में फसलों (वृक्षीय फसलों सहित) तथा वन पौधों तथा/ अथवा जन्तुओं के उत्पादन को जोड़ता है । साथ ही साथ स्थानीय समुदाय द्वारा प्रयोग की जाने वाली कृषि रीतियों के अनुरूप प्रबंधन रीतियों को प्रवृत करता है ।

नम उष्ण क्षेत्रों में वृक्षों के रक्षण के अभाव में एक वर्षीय खाद्य फसलों का उत्पादन प्रायः कठिन होता है । इन क्षेत्रों की मृदा में पोषक तत्व शीघ्र रिसकर नीचे चले जाते हैं तथा इस क्षय को कृत्रिम रूप से पूरित करने का प्रयास किया जाता है, जबकि परंपरागत लघुस्तरीय तंत्रों के लिए यह निषेधार्थक है । वृक्षों के बिना सम्पूर्ण जैविक तथा भौतिक पर्यावरण शीघ्र विघटित हो जाता है । नम उष्ण क्षेत्रों की जंगली वनस्पतियों में वृक्षों का प्रमुख स्थान है तथा फसल उत्पादन अथवा पशुपालन अथवा दोनों के साथ वृक्ष उत्पादन के लिए समान भूमि का बहुप्रयोग, नम उष्ण मृदा की संरचना एवं उर्वरा शक्ति तथा जैविक एवं भौतिक पर्यावरण के अन्य घटकों के संरक्षण के लिए प्रयोग की जाने वाली कम-लागत की तकनीकी में सर्वश्रेष्ठ है । साथ ही उष्ण विकासशील देशों में जनसंख्या की वृद्धि के साथ भूमि एक सीमित संसाधन होती जा रही है तथा योजनाकर्ताओं का ध्यान अपेक्षाकृत कम महत्व के उत्पादन क्षेत्रों की ओर आकर्षित हो रहा है । कम महत्व की भूमि पर प्रतिकूल जैविक तथा भौतिक दशाओं में भी फसलों के साथ वृक्षों के उचित अन्तरारोपण से शुद्ध पारिस्थितिक लाभों के अतिरिक्त फसल उत्पादन तथा वृक्षों की खाद्य एवं अन्य वस्तुओं के उत्पादन की क्षमता में वृद्धि सर्वविदित है । नम उष्ण पर्यावरण के सम्पूर्ण दोहन में वृक्षों की संभावित भूमिका महत्वपूर्ण है ।

कृषि वानिकी के प्रकार

घटकों की प्रकृति के आधार पर भारत में कृषि वानिकी का विस्तृत विवरण निम्नांकित है-

1. एग्री-सिल्वीकल्चर : यह फसलों तथा वृक्षों को जोड़ता है ।
2. एग्री-हार्टीकल्चर : यह फसलों तथा फल प्रदान करने वाले वृक्षों को जोड़ता है ।
3. एग्री-सिल्वीपाश्चर : यह फसलों, वृक्षों तथा चारागाहों को जोड़ता है ।
4. एग्री-हार्टी-सिल्वीकल्चर : यह फसलों, फल प्रदान करने वाले वृक्षों तथा बहुउद्देश्यीय वृक्षों एवं झाड़ियों (एम.पी.टी.एस.) को जोड़ता है ।
5. सिल्वीपाश्चर : यह चारा प्रदान करने वाले वृक्षों तथा चारागाहों/ जन्तुओं को जोड़ता है ।
6. एग्री-हार्टी-पाश्चर : यह फसलों, फल प्रदान करने वाले वृक्षों तथा चारागाहों को जोड़ता है ।
7. हार्टी-पाश्चर : यह फल प्रदान करने वाले वृक्षों तथा चारागाहों को जोड़ता है ।
8. सिल्वी-हार्टीपाश्चर यह बहुउद्देशीय वृक्षों एवं झाड़ियों, फल प्रदान करने वाले वृक्षों तथा चारागाहों को जोड़ता है ।

भारत में कृषि वानिकी का महत्व

  1. भारत के उत्तर-पश्चिमी क्षेत्रों की शुष्क तथा अर्धशुष्क भूमि में गर्म वायु लाखों टन महत्वपूर्ण ऊपरी मृदा को उड़ा ले जाती है, जबकि प्रकृति द्वारा इस मृदा के निर्माण में शताब्दियाँ लग जाती हैं । यदि वृक्षों को रक्षक- पट्टी के रूप में रोपित किया जाता है तो वे वायु को अपनी ऊँचाई से बीस गुना अधिक दूरी तक विस्थापित कर देते हैं । रक्षक-पट्टियों से वायु की गति 20 से 46 प्रतिशत कम हो जाती है तथा ऐसा पाया गया है कि इनके द्वारा रक्षित भूमि पर अरहर, बाजरा तथा मूँगफली का उत्पादन अरक्षित फसलों की तुलना में अधिक होता है । राजस्थान तथा गुजरात के शुष्क क्षेत्रों में खेजरी (प्रोसोपिस सिनेरेरिया) को कुछ फसलों जैसे बाजरा, मूंग तथा मोठ के साथ उगाने के लिए सर्वोत्तम पाया गया है । कम वर्षा वाले क्षेत्रों में खेजरी के 10 वृक्ष, जबकि पर्याप्त वर्षा वाले क्षेत्र में इसके 120 वृक्ष एक हेक्टेअर भूमि के लिए पर्याप्त होते है । इन क्षेत्रों में फसलों के साथ उगाने के लिए झाड़िया बेर (ज़िज़ाइफस न्यूमुलेरिया) भी महत्वपूर्ण स्थान रखता है । अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में कृषिवानिकी के लिए बेर (ज़िज़ाइफस मॉरिशियाना) भी उपयोगी सिद्ध हुआ है । ऐसा देखा गया है कि बेर के वृक्षों की पट्टियों के बीच में रोपित सेम की फसल का उत्पादन 5 क्विंटल फली प्रति हेक्टेयर बढ़ जाता है । ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि खेजरी (प्रोसोपिस सिनेरेरिया) तथा इस्राइली बबूल (एकेशिया टॉर्टिलिस) के वृक्षों को 400 वृक्ष प्रति हेक्टेअर के घनत्व से रोपित करने से उनके मध्य एक उन्नत चारागाह विकसित करके ईंधन की लकड़ी प्राप्त की जा सकती है । चूंकि प्रूनिंग के पश्चात वृक्षों में पुनः वृद्धि हो जाती है, अतः एक वृक्ष को पूर्णतया काटने की तुलना में उसकी बारंबार प्रूनिंग करके अधिक मात्रा में लकड़ी प्राप्त की जा सकती है । पत्तियों का पशुओं के चारे तथा मल्श के रूप में प्रयोग किया जा सकता है । मल्श का मृदा की संरचना में सुधार, वाष्पीकरण में कमी, जल वहन क्षमता में वृद्धि तथा मृदा को जैविक कार्बन एवं पोषक तत्वों से परिपूर्ण करने में उपयोग होता है ।          कृषि वानिकी के लाभ इन क्षेत्रों के अतिरिक्त दूसरे क्षेत्रों में भी पाये गए हैं । सौराष्ट्र के अधिक वर्षा वाले काली मृदा के क्षेत्रों में सू-बबूल या विलायती बबूल (ल्यूसीना ल्यूकोसिफेला) की पट्टियों के मध्य उगाई गई मूँगफली, मूंग तथा उर्द की फसलें अधिक उत्पादन देती हैं ।
  1. राष्ट्रीय कृषि वानिकी अनुसंधान केंद्र, झांसी में किए गए अनुसन्धानों के अनुसार कृषि फसलें 12 बहुउद्देशीय वृक्षों (500 से 1250 वृक्ष प्रति हेक्टेअर) मुख्यतः रामकांटी (एकेशिया निलोटिका उपजाति क्यूप्रेसीफार्मिस) तथा कैजुएराइना इक्वीसेटीफोलिया के साथ सफलतापूर्वक उगाई जा सकती है । ज्वार, मूँगफली तथा गेहूँ को बेर, अनार, नींबू की किन्नो उपजाति एवं अमरूद (100 से 400 वृक्ष पार्टी हेक्टअर) तथा बहुउद्देशीय नाइट्रोजन स्थरीकारक वृक्षों जैसे सू-बबूल (ल्यूसीना ल्यूकोसिफेला, 250 से 300 वृक्ष प्रति हेक्टेअर) के साथ उगाया जा सकता है । इसमें फसलों की उत्पादन क्षमता बढ़ जाती है । आगरा में किए गए अध्यनों के अनुसार रोपण के पूर्व मृदा में सू-बबूल की पत्तियों के सम्मिलन से गेहूं की फसल में 15 से 23 प्रतिशत की वृद्धि होती है । अनुपजाऊ मृदा में उगाये गए गेहूं-लोबिया-गेहूं सस्यावर्तन की लगभग आधी नाइट्रोजन की आवश्यकताओं की पूर्ति सू-बबूल करता है । बंजर भूमि पर सेन्क्रस तथा स्टाइलोंजैंथिस की इस्राइली बबूल (एकेशिया टॉर्टिलिस, 300 वृक्ष प्रति हेक्टेयर) के साथ कृषि करने पर 3.0 से 3.5 टन प्रति हेक्टेअर प्रति वर्ष चारे का तथा वृक्ष घटक द्वारा 7 टन प्रति हेक्टेअर प्रति वर्ष लकड़ी का उत्पादन किया जा सकता है । लकड़ी तथा पशु चारा प्रदान करने वाले वृक्षों जैसे अंजन (हार्डविकिया बाइनेट) तथा सिरिस (एल्बिज़िया लिबेक) के साथ भी उन्नत चारागाह विकसित किए जा सकते हैं । विघटित बंजर भूमि के सुधार के लिए लकड़ी तथा चारा प्रदान करने वाले वृक्षों की उपयुक्त जातियों जैसे एकेशिया निलोटिका उपजाति क्यूप्रेसीफार्मिस, ल्यूसीना ल्यूकोसिफेला, डेन्ड्रोकैलेमस स्ट्रिक्टस, डाइक्रोस्टैकिस सिनेरिया, एल्बीज़िया एमारा, डेल्बरजिया सीसू आदि की संस्तुति की गई है ।
  1. सोलन में पाया गया है कि 5 x 5 मी. की दूरी पर रोपित पॉपलर (पापुलस एल्बा) वृक्षों के मध्य के स्थान में गेहूं सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है । पूर्वी हिमालय क्षेत्र में मक्का/ अदरख तथा सोयाबीन/ अदरख का यूटिस (एल्नस निपालेन्सिस) के साथ उगाना लाभप्रद है । सिक्किम में बांस के द्वारा छायित भूमि में अदरख तथा हल्दी की कृषि लाभप्रद है । देहरादून में कैम्फर (सिनेमोमम कैम्फोरा) तथा सागौन (टेक्टोना ग्रैंडिस) को सरसों के साथ 6-8 मीटर की दूरी पर सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है । करनाल क्षेत्र की ऊसर एवं क्षारीय भूमि के काबुली कीकर (प्रोसोपिस जुलीफ्लोरा) के साथ करनाल-घास (डिपलैक्ने फस्का) उगाने में प्रभावी रूप से उपयोग किया गया है । अनुसंधानों से विदित हुआ है कि जयन्ती (सेस्बानिया सेस्बान) मृदा को पर्याप्त मात्रा में नाइट्रोजन प्रदान करती है ।
  1. छोटा नागपुर तथा पश्चिम बंगाल के अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में ऑस्ट्रेलियन बबूल (एकेशिया ऑरिकुलीफॉर्मिस) के साथ उगाने पर मक्के की फसल में 10.2 किलोग्राम प्रति हेक्टेअर की वृद्धि होती है । इसी प्रकार अमरूद + चंदन एवं अमरूद + शीशम भी अधिक उत्पादन देते हैं । उड़ीसा में लीची + पत्तागोभी तथा नींबू + पत्तागोभी के मध्य कुछ स्थानों पर जयन्ती तथा सू-बबूल उगाकर अधिक उत्पा व अन्य कार्यों में उपयोगी लकड़ी के लिए दन किया जा सका है ।

निष्कर्ष

लघुस्तरीय कृषि व्यवसायों में कृषि वानिकी की विस्तृत बहुउद्देशीय संसाधन प्रयोग धारणा का अनुप्रयोग किया जा सकता है, क्योंकि इनमें पहले से ही ईंधन की लकड़ी, पशुचारा, खाद्यफल, फलियाँ व पत्तियां, मृदा के स्थरीकरण व उर्वराशक्ति में सुधार एवं निर्माण व अन्य कार्यों में उपयोगी लकड़ी के लिए विविध फसलें उगाई जा रही हैं । विस्तृत रूप में विचार करने पर विदित होता है कि कृषि वानिकी की सहायता से कृषि उत्पादन में वृद्धि व विविधता लाई जा सकती है, पारिस्थितिकीय रूप में सार्थक कृषि-पारिस्थितिक तंत्रों को प्रेरित किया जा सकता है, तथा ग्रामीण व्यवसायों के लिए अवसरों में विविधता का समावेश किया जा सकता है । यद्यपि नम उष्णकटिबंधीय तथा शुष्क क्षेत्रों के अनेक भागों में इसकी उपयोगिता सिद्ध हो चुकी है तथा देश के अन्य क्षेत्रों में भी इसके अच्छे परिणाम आने की संभावना है, किन्तु अपेक्षाकृत आदर्श एवं अस्थायी एकल संवर्धन को विस्थापित करके उसके स्थान पर इस प्रकार के विविध पारिस्थितिक तंत्र की स्थापना के लिए राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक संकल्पशक्ति एवं समर्पण, कृषि एवं वानिकी का पूर्णसंगठित राष्ट्रीय एवं प्रांतीय प्रशासन, वानिकी अधिकारियों के अनुसंधान व प्रशिक्षण में वृद्धि, कृषि व वानिकी सेवाओं में वृद्धि तथा लघुस्तरीय कृषकों में संकल्पशक्ति व अनुशासन के समावेश की आवश्यकता होगी ।

-द्वारा

डॉ. अजय कुमार झा

वरिष्ठ प्रबंधक (पर्यावरण)

तीस्ता-VI परियोजना, सिक्किम

Pic source: https://www.fs.usda.gov/ccrc/topics/agroforestry