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हमारे आस-पास जो कुछ भी है, जैविक अथवा अजैविक सब पर्यावरण की परिभाषा के अंतर्गत समाविष्ट हो जाता है। बहुधा पेड़-पौधे और जीव-जंतु तक हमारा पर्यावरण विमर्श केंद्रित रह जाता है जबकि मिट्टी की घटती हुई उर्वरता से ले कर जहरीले होते आसमान तक चर्चा आवश्यक है। विषय को इसी क्रम में देखते हैं तथा जलवायु को प्रभावित करने वाले कारकों पर एक विहंगम दृष्टि डालने का प्रयास करते हैं।

 

आरम्भ मृदा से….। मृदा पृथ्वी का वह उपरी हिस्सा है जो शैलों के जलवायु, जीवजंतु, स्थलाकृति तथा समय जैसे कारकों द्वारा टूट-फूट अथवा अपक्षय से निर्मित है। मृदा में आवश्यक रूप से अनेक प्रकार के जीवांश पाये जाते हैं एवं यही पेड़-पौधे की समुचित वृद्धि में सहायक भूमिका अदा करते हैं। मृदा का निर्माण आग्नेय, अवसादी तथा कायांतरित शैलों (rocks) से होता है। इन शैलों की रासायनिक संरचना भिन्न होने से इनसे बनी भूमियों व मृदा की प्रवृत्तियाँ, बनावट व संगठन भी भिन्न-भिन्न होता है। मृदा निर्माण की प्रक्रिया के लिये शैलों का अपक्षय (weathering) विभिन्न भौतिक तथा रासायनिक कारणों से होता है। भौतिक अपक्षय के मुख्य सहायक है जल, वायु, पेड़-पौधों एवं जीव-जंतु। रासायनिक अपक्षय के कारक हैं – विलयन, जलीकरण, जल-अपघटन, कार्बोनीकरण, ऑक्सीकरण तथा अपचयन। उपलब्ध भूमि और मिट्टी कैसी है उसकी उपादेयता (utility) भी समझी जानी आवश्यक है। कुछ आँकडे इस दिशा में महत्वपूर्ण हैं। हमारे देश के भौगोलिक क्षेत्रफल (32.90 करोड हेक्टेयर) में से लगभग 14.20 करोड हैक्टेयर में खेती होती है। जनसंख्या को आधार माने तो वर्तमान में प्रति व्यक्ति भूमि का क्षेत्रफल लगभग 0.12 हेक्टेयर ही है। अच्छी उत्पादकता वाली एक हेक्टेयर भूमि से पच्चीस व्यक्तियों का भरण-पोषण किया जा सकता है जबकि हमारे देश में 3.25 हेक्टेयर भूमि से 25 व्यक्तियों का जीवनयापन संभव हो पाता है। सत्यता यह भी है कि हमारे देश में लगभग 2.5 सेंटीमीटर उपरी स्तर की मिट्टी बनने में पाँच सौ से पंद्रह सौ वर्ष लग जाते हैं। भारत की उपलब्ध भूमि को मृदाओं को चार प्रमुख समूहों अर्थात जलोढ़, काली, लाल तथा लेटराइट में बांटकर उनके गुण-निर्धारित करने का प्रयास किया गया है। मिट्टी तो महत्ता रखती ही है चूंकि हर तरह की खेती का प्रारंभिक आधार वही है तथापि तह में जा कर देखा जाये तो किसी स्थल की जलवायु कुछ बातों पर निर्भर करती है जैसे – वह स्थान समुद्र से कितनी दूर है और उसके आसपास पहाड़ हैं, जंगल या रेगिस्तान।

 

वैश्विक परिदृश्य में जलवायु की विविधता क्षेत्रवार देखी गयी है और उसी अनुसार उनको नाम भी दिये गये हैं। उत्तरी ध्रुव पर आर्कटिक महासागर के आसपास टुंड्रा या ध्रुवीय जलवायु पायी है जिसकी पहचान भयावह ठंड है। इस तरह की जलवायु वाले क्षेत्र में वर्ष भर बर्फ ही जमी रहती है चूंकि तापमान शून्य से बहुत नीचे बना रहता है, केवल गर्मियों में थोड़ी बहुत हरियाली यहाँ दिखाई पड़ती है। अगली श्रेणी में आती है पर्वतीय जलवायु जिसकी विशेषता है कि यह ध्रुवीय जलवायू से गर्म होती है फिर भी अपेक्षाकृत यहाँ पर कड़ी ठंडक बनी रहती है। सर्दियों वाले मौसम की अवधि छ: महीने तक हो सकती है। ऐसे मौसमों वाले पर्वतों पर सफेद बर्फ की चादर पड़ी देखी जा सकती है। ऐसी जलवायु में पर्वतों का श्रृंगार देवदार, चीड़  और फर के  जंगल बनते हैं । जब न तो  सर्दी अधिक होती है  न ही  गर्मी और

 

भारत में वर्षा का माहवार वितरण
मानसून का प्रकार माह/ अवधि वार्षिक वर्षा
दक्षिणी- पश्चिमी जून से सितम्बर 73.7%
परवर्ती अक्टूबर से दिसम्बर 13.3%
उत्तरी-पश्चिमी जनवरी से फरवरी 2.6%
पूर्वी मार्च से मई 10.0%

 

अधिक बरसात भी नहीं होती वह शीतोष्ण (temperate) जलवायु के रूप में वर्गीकृत है। यूरोप का पश्चिमी तट, उत्तरी अमेरिका, जापान, आस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड के कुछ हिस्सों में इस तरह की जलवायु पायी जाती है। ऐसे क्षेत्रों में वर्ष भर हल्की वर्षा होती रहती है साथ ही यहाँ गर्मी, सर्दी, पतझड़ तथा वसंत के रूप में चार मौसम पाये जाते हैं। भूमध्य सागरीय जलवायु की चर्चा करें तो इससे सम्बद्ध क्षेत्रों में गर्मियाँ  सूखी होती हैं तथा सर्दियों में वर्षा होती है। अधिक वर्षा होने के कारण ऐसी जलवायु वाले क्षेत्रों में घने जंगल पाए जाते हैं। भूमध्यसागर के निकटवर्ती स्थानों के अतिरिक्त यह जलवायु दक्षिण अफ्रीका, चिली, मध्यपूर्व और आस्ट्रेलिया के तटवर्ती हिस्सों में भी पाई जाती है। इसी तरह गर्म जलवायु में मौसम सूखा रहता है। ऐसी जलवायु से सम्बद्ध क्षेत्रों में वर्षा या तो नहीं होती या बहुत कम होती है। दोपहर में दिन का तापमान बहुत अधिक होता है। अधिक सूखे स्थानों पर मरूस्थल पाया जाता है जबकि कम सूखे स्थानों पर घास के मैदान हो सकते हैं। अफ्रीका व मध्यपूर्व के अधिकतर स्थानों तथा आस्ट्रेलिया व अमेरिका के भी कुछ हिस्सों में यह मौसम पाया जाता है।

 

भारत के उत्तर में हिमालय पर्वत की उपस्थिति के कारण मध्य एशिया से आने वाली शीतल हवाएँ नहीं आ पाती साथ ही दक्षिण में  हिन्द महासागर  स्थित होने और भूमध्य रेखा से समीपता के कारण यहाँ कटिबंधीय (tropical) जलवायु पायी जाती है जिसका प्रभाव है – दैनिक तापांतर की न्यूनता, अत्यधिक आर्द्रता वाली वायु तथा सम्पूर्ण देश में न्यूनाधिक (modulator) रूप में वर्षा का होना। अर्थात भारत में मुख्य रूप से मानसूनी जलवायु पायी जाती है। यहाँ की भूमि मानसूनी  पवनों के प्रभाव क्षेत्र में आती है। वैसे देखा जाए तो भारत में ध्रुवीय छोड़ कर बाकी चारों प्रकार के मौसम किसी न किसी रूप में पाये जाते हैं। भारत के अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में पश्चिमी घाट पर्वत का पश्चिमी तटीय भाग, हिमालय पर्वतमाला की दक्षिणावर्ती तलहटी में सम्मिलित राज्य जिनमें असम, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, सिक्किम, पश्चिम बंगाल का उत्तरी भाग, पश्चिमी तट के कोंकण, मालाबार तट (केरल), दक्षिणी किनारा, मणिपुर एवं मेघालय इत्यादि सम्मिलित हैं। इन क्षेत्रों में वार्षिक वर्षा की मात्रा 200  से. से अधिक होती है। भारत के साधारण वर्षा वाले क्षेत्रों में पश्चिमी घाट के पूर्वोत्तर ढाल, पश्चिम बंगाल का दक्षिणी-पश्चिमी क्षेत्र, उड़ीसा, बिहार, दक्षिणी-पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा तराई क्षेत्र के समानान्तर पतली पट्टी में स्थित उत्तर प्रदेश, पंजाब होते हुए जम्मू-कश्मीर के क्षेत्र शामिल हैं। यहाँ वार्षिक वर्षा की मात्रा 100 से 200 सेमी तक होती है।इन क्षेत्रों में वर्षा की विषमता 15 प्रतिशत से 20 प्रतिशत तक पायी जाती है।  अतिवृष्टि एवं अनावृष्टि के कारण यहाँ फसलों की बहुत हानि होती है। भारत के कम  वर्षा वाले क्षेत्रों में मध्य प्रदेश, दक्षिण का पठारी भाग,  गुजरात, उत्तरी तथा दक्षिणी आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक, पूर्वी राजस्थान, दक्षिणी पंजाब, हरियाणा तथा दक्षिणी उत्तर प्रदेश आते हैं। यहाँ 50 से 100 सेमी वार्षिक वर्षा होती है। वर्षा की विषमता 20 प्रतिशत से 25 प्रतिशत तक होती है। इसके साथ ही भारत में कुछ अपर्याप्त वर्षा वाले क्षेत्र भी हैं जहाँ वार्षिक वर्षा की मात्रा 50 सेमी से कम होती है। कच्छ, पश्चिमी राजस्थान, लद्दाख आदि क्षेत्र इसके अन्तर्गत शामिल किये जाते हैं।

 

यह भारत के मृदा और जलवायु परिदृश्य पर  एक संक्षिप्त और समग्र दृष्टि भर है। पर्यावरण में पड़ने वाले किसी भी प्रभाव को बदलती हुई जलवायु से ही समझा जा सकता है अत: उसपर कड़ी दृष्टि रखते हुए बदलाव के कारकों की पहचान और निराकरण आवश्यक हो जाता है।

 

                                                                                                                गौरव कुमार,  उप महाप्रबंधक (पर्यावरण) 

राजीव रंजन प्रसाद, उप महाप्रबंधक (पर्यावरण)