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(बतकही/ प्रसंग)

 

फूलों की दुकान का मुआयना करती रूतु की सरसरी नजरें कंटीली नागफनी की खूबसूरती पर जा कर अटक गईं और अब नागफनी का वो नन्हा पौधा उसके शयनकक्ष की सजीवता को बढ़ा रहा था। वस्तुतः रूतु गई तो थी फूल के पौधे लेने पर उसने कंटीली नागफनी में ज्यादा अपनापन पाया। रूतु को नागफनी अपनी फ़ितरत से मिलती-जुलती सी लगी तो उसे संग ले आई। लंबे अरसे से सिरहाने पड़ा खाली तिपाया उसे कचोट रहा था। वैसे भी कहने वाले से ज्यादा उसे सुनने वाले की जरूरत थी – एक मौन श्रोता !

 

नागफनी (कैक्टस) को सामान्यतः घर के अंदर क्या, घर के आस-पास भी देखना पसंद नहीं किया जाता है, पर  “रूतु” उसे अपने घर के अंदर ही नहीं बल्कि अपने शयनकक्ष में रखने के लिए खरीद लाई थी। “नागफनी” – खाद/पानी व देखभाल के बिना भी जीवित रहने की कूवत रखती है। अपनी जिजीविषा को खुद में समेटे, संरक्षित किए – काफी हद तक आत्मनिर्भर ! कांटों के खूबसूरत लिबास में इठलाती हुई,  और … कांटे भी तेज़, धारदार, नुकीले और तीखे।

 

वास्तव में ये कांटे नागफनी की पत्तियां हैं, जो कि कांटों में तब्दील हो गई हैं – वातावरणवश/ परिस्थितिवश ताकि तने में सहेजी गई नमी/ प्राणऊर्जा उड़न-छू न हो पाए। प्रकृति की गोद में तपती धूप का सामना करना है, भीषण गर्म हवा के थपेड़े झेलने हैं, चुभती ठंढ भी सिहरा के गुजर जानी है और वो भी …. अनवरत/ निरंतर। जड़ें जितनी गहरी होंगी, उतना जीवन रस सोखेंगी, उतनी ही मजबूती रहेगी स्वाभिमान सहित तन कर खड़े होने में।

 

रूतु अब पहले से भी ज्यादा खुश है। सुबह घर से निकलते वह नागफनी को कमरे से बाहर धूप में रख जाती है ताकि नागफनी को अकेलापन न महसूस हो और फिर शाम को वापस नागफनी को कमरे के अंदर ले आती है। रात के ढलने तक रूतु और नागफनी खामोशी में बातें करते हैं।

 

-पूजा सुन्डी

उप प्रबंधक (पर्यावरण)

निगम मुख्यालय