(चित्र आभार : इन्टरनेट/गूगल)

लेख/आलेख :-
1)डॉ. अनिल कुमार त्रिपाठी,  महाप्रबंधक(पर्याo)       2) गौरव कुमार, उप-महाप्रबंधक (पर्याo)
3) विशाल शर्मा, वरिष्ठ प्रबंधक (पर्याo)                       4) मनीष कुमार, सहायक प्रबंधक (मत्स्य)                                                               

(पर्यावरण एवं विविधता प्रबंधन विभाग)

“राजभाषा ज्योति” में प्रकाशित – अंक : 29, अप्रैल-सितम्बर’2016


परिचय:

गंगेटिक डॉल्फिन, मीठे पानी की एक जलीय स्तनधारी जीव हैं। ये कोर्डेटा संघ और मेमेलिया कक्ष के अंतर्गत सिटेसियन ऑर्डर से संबंध रखते हैं। इनका द्विपद नाम प्लाटानिस्टा गंगेटिका है। ये प्रायः गंगा, ब्रह्मपुत्र और उनकी सहायक नदियों में पायी जाती हैं। यह आमतौर पर गंगा नदी में “सुसु” और ब्रह्मपुत्र नदी में “हूहू” नाम से जानी जाती है।  

वितरण:

भारत में गंगेटिक डाल्फिन का वितरण असम, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में हैं। गंगेटिक डाल्फिन के लिए अपर गंगा नदी, चंबल नदी (मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश), घाघरा और गंडक नदियों (बिहार और उत्तर प्रदेश), गंगा नदी, (वाराणसी से पटना, उत्तर प्रदेश और बिहार), सोन और कोसी नदियों (उत्तर प्रदेश और बिहार), ब्रह्मपुत्र नदी (सादिया से धुबरी तक, अरुणाचल प्रदेश की तलहटी से बंगलादेश सीमा तक) और कुलसी नदी (ब्रह्मपुत्र नदी की एक सहायक नदी) को आदर्श निवास के रूप में जानी जाती है। कुछ डाल्फिन की आबादी सुबनसिरी नदी (ब्रह्मपुत्र की सहायक नदी) में भी पायी जाती है। भारत में गंगेटिक डॉल्फ़िन की आबादी वाली कुल नदी पद्धति की लंबाई लगभग 1050 किoमीo है। हालांकि गंगेटिक डाल्फिन की आबादी नदी में बिखरी हुई  हैं, पर ज्यादातर इनकी आबादी नदियों के संगम पर पायी जाती है, जहां प्रायः गहरे पानी की अधिकता एवं पानी की धारा प्रबल रहती है। एक अध्ययन के अनुसार ब्रह्मपुत्र नदी में गंगेटिक डॉल्फिन को ऐसे जगह बहुतायत में पाया गया है, जहाँ नदी में पानी कि गहराई 4.1 से 6 मीटर के बीच, जबकि सबसे कम संख्या 3.95 मीटर गहराई पर पायी गयी है। ये प्रायः मगरमच्छ, कछुए और आर्द्रभूमि वाली पक्षियों के साथ अपना निवास स्थान साझा करना पसंद करती हैं।

विशिष्टता:

गंगेटिक डॉल्फिन (“सुसु” या “हूहू”) की अधिकतम लंबाई 2.6 मीटर (8 फीट) और वजन 100 किलोग्राम तक पाया गया है। गंगेटिक डॉल्फ़िन का रंग भूरा, त्वचा चिकनी और शरीर का मध्य भाग्य गठीला होता है, जबकि डॉल्फिन शावक जन्म के समय चॉकलेट भूरे रंग का होता है। गंगेटिक डॉल्फ़िन के पास एक लंबी चोंच और साथ में ऊपरी और निचले जबड़े के प्रत्येक पक्ष पर कुल 28 तेज घुमावदार दांत होते हैं। इनके फ्लिपर्स व्यापक और पैडल की तरह होते हैं। चूकीं ये स्तनधारी हैं, अतः ये फेफड़ों से सांस लेते हैं और 30-50 सेकंड में कम से कम एक बार सांस लेने के लिए सतह के ऊपर आया करती हैं। यह 5 0C से  35 0C तक पानी की तापमान में आराम से जीवन निर्वाह करती है। इनके ऑप्टिक इंद्रियाँ अल्पविकसित होने के साथ-साथ इनके नेत्र लेंस भी काफी कमज़ोर होते हैं, जिनकी वजह से ये प्रभावी रूप से अंधी होती हैं, लेकिन इसकी भरपाई इनके अच्छी तरह से विकसित सोनार संवेदना से हो जाती है। डॉल्फिन की विशिष्टता इनकी यही अत्यधिक विकसित सोनार संवेदना है। यह केवल ऐसे जलीय स्तनपायी हैं, जिनकी सोनार संवेदना (ध्वनि) इस हद तक विकसित है कि, यह इको-लोकेशन की मदद से ही नेविगेशन और अपने भोजन के लिए शिकार करती हैं। ये 2,00,000 हर्ट्ज (Hz) तक अल्ट्रा सोनिक ध्वनि पैदा करती हैं, जबकि मानव कान की सुनने की क्षमता केवल 20,000 हर्ट्ज (Hz) तक है। इसकी मदद से यह प्रकाश की तीव्रता और प्रकाश की दिशा का पता लगाने के लिए सक्षम है। डॉल्फिन अपने बगल से तिरछे होकर तैर सकती हैं, जो इन्हें सारे सिटेसियन्स में अनुपम बनाते हैं। डॉल्फिन, कछुए, मगरमच्छ और शार्क की कुछ प्रजातियों के साथ-साथ दुनिया में सबसे पुराने प्राणियों में से एक है।

जीवविज्ञान:

परिपक्व मादा डाल्फिन एक परिपक्व नर की तुलना में बड़ी होती है। मादा 10-12 साल की उम्र में यौन परिपक्वता प्राप्त करती है, जबकि नर उनसे पहले परिपक्व हो जाते हैं। गर्भ की अवधि 9-11 महीने होती है और एक मादा 2-3 वर्षों में केवल एक डॉल्फिन शावक (65 सेमी लंबाई) को जन्म देती है। एक डॉल्फ़िन अपने पूरे जीवनकाल (लगभग 25 – 28 वर्ष) में औसतन पाँच से छह बच्चे को जन्म देती है। डॉल्फिन के बच्चों का जन्म ज्यादातर दिसंबर से जनवरी और मार्च से मई के बीच केंद्रित होता है। लगभग एक वर्ष के बाद, किशोर दूध पीना छोड़ देते हैं और वे 8-10 साल की उम्र में यौन परिपक्वता प्राप्त करते हैं।मानसून के दौरान डॉल्फिन मुख्य नदी प्रणालियों की सहायक नदियों की ओर पलायन करती हैं। कभी कभी, डॉल्फिन तैरते समय अपने चोंच पानी की सतह से ऊपर रखती हैं, तो कभी हवा मे छलांग लगाकर वापस पानी में अपने बगल की तरफ से लैंडिंग करती हैं। डॉल्फिन प्रायः भोजन के लिए झींगा और मछलियों के किस्म जैसे कार्प और कैटफ़िश को अपना शिकार बनाती है। चूँकि डॉल्फिन आम तौर पर अंधी होती हैं, इसलिए अपने शिकार को पकड़ने के लिए ये एक अल्ट्रासोनिक ध्वनि उत्पन्न करती हैं जो शिकार तक पहुंचता है, फिर डॉल्फिन अपने मन में इस छवि को कैद करती हैं और अपने शिकार को पकड़ लेती हैं। ये ज्यादातर अपना शिकार कम प्रवाह की पानी में करती हैं। डॉल्फिन तंग समूह में रहना पसंद नहीं करती है।

संरक्षण:

गंगेटिक डॉल्फिन कुछ साल पहले बड़ी संख्या में पायी जाती थी। लेकिन अब इनकी संख्या गंगा नदी में मछली पकड़ने (गिल नेटिंग), अवैध शिकार, रेत खनन और वनों की कटाई (असम की कुलसी नदी में) जैसे विभिन्न मानव गतिविधियों की वजह से काफी नीचे आ गयी है। सन 1982 में गंगेटिक डॉल्फ़िन की कुल आबादी 6000 थी, जो 2005 में केवल 2000 संख्या तक रह गयी और 2012 के सर्वेक्षण के अनुसार अब यह आंकड़ा घटकर 1800 की संख्या से भी कम हो गयी है। यह अनुमान है कि लगभग 100 डॉल्फिन गंगा और ब्रह्मपुत्र नदी में सालाना मारी जाती हैं। डॉल्फिन का तेल, गठिया के लिए दवा के रूप में और कैटफिश के चारा की तैयारी के लिए प्रयोग किया जाता है।

गंगेटिक डॉल्फिन को भारतीय वन्यजीव अधिनियम, 1972 के अनुसूची 1 में शामिल किया गया है। इस अधिनियम के अनुसार, डॉल्फिन को मारने या उनके किसी भी हिस्से को रखने के अपराध के लिए संबंधित व्यक्ति को 1 से 6 साल तक की कैद और कम से कम 6000 रुपए तक का जुर्माना रखा गया है। गंगेटिक डॉल्फिन को “कन्वेंशन ऑन इन्टरनेशनल ट्रेड इन इंडेञ्जर्ड स्पीसीज” (CITES) के ‘परिशिष्ट- I’ में सूचिबद्ध किया गया है, ताकि इनके अंतर्राष्ट्रीय व्यापार पर रोक लग सके। इनकी संख्या में निरंतर गिरावट के कारण ही IUCN द्वारा सन 1996 में इसे ‘अतिसंवेदनशील’ की स्थिति से ‘लुप्तप्राय प्रजाति’ में तब्दील किया गया था। इस प्रजाति को IUCN द्वारा संकटग्रस्त प्रजातियों की रेड लिस्ट, 2006 में “लुप्तप्राय प्रजाति” के रूप में भी सूचीबद्ध किया गया है।

राष्ट्रीय चंबल अभयारण्य (National Chambal Sanctuary) में गंगेटिक डॉल्फिन की आबादी तत्काल खतरे में है, जिनका प्रत्यक्ष कारण नदी की घटती गहराई और रेत टीलों द्वारा नदी का छोटे-छोटे खंडों में विभाजित होना है। डॉल्फ़िन के संरक्षण के उपायों को मद्देनजर रखते हुए डॉल्फिन अभयारण्य और अतिरिक्त निवास स्थान के निर्माण के लिए प्रस्ताव रखा गया है।         पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा गंगेटिक डॉल्फिन को एक “राष्ट्रीय जलीय पशु” के रूप में घोषणा की गयी है, ताकि इनका संरक्षण उच्च पैमाने पर किया जा सके। यह निर्णय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में अक्टूबर, 2009 में “राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण” (NGRBA) की पहली बैठक में लिया गया था। इसे राष्ट्रीय धरोहर का हिस्सा माना गया है।

बिहार में सुल्तानगंज और कहलगांव के बीच गंगा नदी के एक खंड को “डॉल्फिन अभयारण्य” के रूप में घोषित किया गया है, जिसका नाम “विक्रमशिला गंगेटिक डॉल्फिन अभयारण्य” (VGDS) रखा गया है। यह गंगेटिक डॉल्फिन के संरक्षण के लिए दुनिया का पहला डॉल्फिन अभयारण्य है, जो गंगेटिक डॉल्फिन संरक्षित क्षेत्र है।

यह अभ्ययारण्य 1991 में मनोनीत हुआ था। विक्रमशिला गंगेटिक डॉल्फिन अभयारण्य,  भारत के बिहार राज्य के भागलपुर जिले में स्थित है। यह अभयारण्य सुल्तानगंज से कहलगांव तक गंगा नदी में 50 किलोमीटर तक फैली है। पर्यटन के लिए सबसे अच्छा समय अक्टूबर और जून है, जबकि पर्यटन स्थान बरारी घाट, जहां विक्रमशिला सेतु शुरू होता है, उल्लेखनीय रूप से दर्ज है। कुछ वर्ष पहले गंगेटिक डॉल्फ़िन इस क्षेत्र में बहुतायत में पाया जाता था, जो की अब यहां पूरे जनसंख्या की केवल आधी आबादी भर रह गयी है।

यह प्रजाति “कोन्वेंसन ऑन द कंजर्वेसन ऑफ माइग्रेटरी स्पीसीज ऑफ वाइल्ड एनिमल्स” (CCMSWA) की परिशिष्ट प्रथम एवं द्वितीय में भी सूचीबद्ध है। इसके  तहत गंगेटिक डॉल्फ़िन के विलुप्त होने के खतरे को कम करने की दिशा में सख्ती से प्रयास किए जा रहे हैं, जैसे इन जानवरों के एक जगह से दूसरे जगह पलायन करने में रुकावट न हो, उनके निवास स्थान को संरक्षण प्रदान कर एवं अन्य सभी कारकों को नियंत्रित रखना है, ताकि इनका जीवन-यापन अनुकूल रह सके। उत्तर प्रदेश में डॉल्फिन के अस्तित्व को बनाए रखने के लिए उत्तर प्रदेश सरकार प्राचीन हिंदू ग्रंथों की सहायता ले रही है, ताकि इनके संरक्षण के लिए समुदाय का समर्थन बढ़ाया जा सके।

इनके संरक्षण के लिए अभयारण्य क्षेत्र के आस-पास विभिन्न संरक्षण कार्य किए जा रहे हैं। “विक्रमशिला जैव विविधता अनुसंधान और शिक्षा केन्द्र” (VBREC) के द्वारा “व्हेल और डॉल्फिन संरक्षण सोसायटी” (WDCS), पटना विश्वविद्यालय के “पर्यावरण जीवविज्ञान प्रयोगशाला” और टी.एम. भागलपुर विश्वविद्यालय के साथ मिलकर विक्रमशिला गंगेटिक डॉल्फिन अभयारण्य के संरक्षण के मूल्य में सुधार करने के लिए एक परियोजना शुरू की गई है। “आरण्यक” जो एक पंजीकृत संरक्षण एनजीओ है और पूर्वोत्तर भारत में 1989 से कार्य कर रहे हैं, उन्होनें डिब्रूगढ़ विश्वविद्यालय (असम) के सहयोग से “ कंजर्वेसन ऑफ गंगेटिक डॉल्फ़िन इन ब्रह्मपुत्र रिवर सिस्टम, इंडिया” नमक परियोजना की शुरूआत की है। यह परियोजना गंगेटिक डॉल्फ़िन प्रजाति की जनसंख्या की स्थिति, वितरण, निवास स्थान वरीयताओं को और खतरों में अनुसंधान कर पूरे ब्रह्मपुत्र नदी प्रणाली भर में गंगेटिक डॉल्फिन के संरक्षण की स्थिति का मूल्यांकन पर ध्यान केन्द्रित करती है। डब्ल्यूडब्ल्यूएफ, इंडिया ने भी गंगा नदी डॉल्फिन के निवास स्थान के संरक्षण और इस लुप्तप्राय प्रजातियों के भविष्य सुरक्षित करने के लिए एक डॉल्फिन संरक्षण कार्यक्रम शुरू किया है।

मानव हस्तक्षेप के कारण ख़तरा :

उर्वरकों, कीटनाशकों और औद्योगिक एवं घरेलू अपशिष्ट के द्वारा हो रही जल-प्रदूषण से कई मछलियों की मौत हो रही है और यह डॉल्फिन की आबादी पर भी नकारात्मक प्रभाव डालने की पूरी संभावना रखती है ।हाल के वर्षों में गंगा नदी पर नाव यातायात भी बढ़ गया है, जिनके इंजनों के शोर से डॉल्फिन की सोनार प्रणाली प्रभावित होती है। डॉल्फ़िन के मांस या तेल (कैटफ़िश चारे के रूप में प्रयोग किया जाता है) के लिए इनका शिकार करने  और मछली पकड़ने के जाल में आकस्मिक उलझाव के कारण भी इन जानवरों की मौत हो रही है। नदी में, खास कर शुष्क महीने में, मछली पकड़ने के लिए जाल का उपयोग करने से अकसर डॉल्फ़िन फंस जाया करती है, क्यूंकि तब नदी में पानी कम रहता है। इसलिए इस समय मछली पकड़ने की मनाही होना जरूरी है। नदी में उपयोग होने वाले जाल नायलॉन के न हो, क्यूंकी इसमें डॉल्फ़िन फंसकर बाहर निकलने में असमर्थ होती है, इनकी जगह जूट और कपास से बने जाल का उपयोग होना चाहिए, ताकि यह उसे तोड़कर बाहर निकल सके और इस तरह हम इनके संरक्षण के लिए अपना योगदान दे सकें।