पर्यावरण ब्लॉग के नवीन अंक में हम सतत विकास की संकल्पना पर बात करते हैं। संज्ञान में लें कि पर्यावरण और विकास की बहस बहुत पुरानी है तथा दोनों को एक-साथ देखने की दृष्टि ही सतत विकास की अवधारणा है। पहले ही महात्मा गाँधी ने भांप कर कहा था कि “प्रकृति प्रत्येक मनुष्य की आवश्यकता पूरी कर सकती है, लेकिन एक भी मनुष्य के लालच को वह पूरा नहीं कर सकती”, इसे समझते हुए यदि गंभीरतापूर्वक देखें तो वैश्विक स्तर पर सतत विकास की अवधारणा का जन्म पर्यावरण की चिंताओं के दृष्टिग्त नहीं हुआ है। प्रकृति ने स्वयं अवरोध उत्पन्न किये कि विश्व को अपनी हवा, अपने पानी और अपनी मिट्टी की चिंता करने के लिये मजबूर होना पड़ा। इस बाध्यता का कारण भी बाजार के हित में ही अंतर्निहित था। व्यापारी हो चुके राष्ट्रों को अपने आर्थिक लाभ प्रभावित होने और उत्पादन प्रणालियों के बंद हो जाने का भय सताने लगा था। जिन राष्ट्रों की पूर्ण निर्भरता अपने औद्योगिक उत्पादनों पर थी वे अब ऐसी तकनीक चाहते थे जो विकास का पहिया भी न रुकने दे और उनके कारण पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभावों की कुछ रोकथाम भी सम्भव हो।
उत्पादों के द्वितीयक प्रभावों ने भी उत्पादक राष्ट्रों की चिंता बढा दी थी उदाहरण के लिये डीडीटी जैसे कीटनाशक अगर मच्छर की रोकथाम कर रहे थे तो उसके मानवजीवन पर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभाव अब वैज्ञानिकों की चिंता का कारण बनने लगे थे। वर्ष 1962 में वैज्ञानिक रॉकल कारसन की किताब ‘दी साइलेंट स्प्रिंग’ ने डीडीटी के प्रभावों को सामने लाकर सतत विकास के दृष्टिकोण को नई दिशा प्रदान की। यह पुस्तक यह संदेश प्रदान करने में सफल रही कि एक उत्तम निष्कर्ष के लिये भी नकारात्मक प्रभावों की अनदेखी करना घातक हो सकता है। इसी कड़ी में वर्ष 1968 में प्रकाशित पॉल इहरलिच की पुस्तक ‘पॉप्युलेशन बम’ को भी गिना जाना चाहिये जिसके माध्यम से बढ़ती जनसंख्या द्वारा संसाधनों के दोहन पर प्रकाश डालते हुए पर्यावरण संरक्षण पर गहरी चिंता वयक्त की गयी थी। पर्यावरण की इन आरम्भिक चिंताओं पर ठोस प्रहार करते हुए वर्ष 1971 में आर्थिक सहयोग तथा विकास संगठन “पॉल्यूटर्स पे” सिद्धांत के साथ सामने आया जिसका मूल भाव था कि प्रदूषण फैलाने वाले देशों को पर्यावरण की सुरक्षा-संवर्धन का खर्च उठाना चाहिये। यह सिलसिला अपने परिणाम तक वर्ष 1972 में पहुँचा जब स्वीडन की राजधानी स्टॉकहोम में पर्यावरण पर केंद्रित संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन आयोजित किया गया था। सारी दुनिया अब एकमत थी कि विकास के साथ-साथ पर्यावरण का भी समुचित रूप से संरक्षण होना चाहिये। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम की स्थापना के साथ पर्यावरण संरक्षण की अवधारणा में सतत विकास की दृष्टि समाहित हुई। इसके पश्चात से लम्बा समय सतत विकास के दृष्टिगत विश्व के विज्ञानिकों को कार्य करते हुए हो गया है। हमारा प्रयास ऐसा ही विकास होना चाहिये जिसमें प्रकृति को हुई हानि को न्यूनतम किया जा सके और उत्पादन का लाभ भी हो। एनएचपीसी अपनी सभी परियोजनाओं में सतत विकास के लक्ष्यों को निर्धारित करती है और इस दिशा में कार्य करने हेतु उद्यत है।
एन.एस. परमेश्वरन
कार्यपालक निदेशक
Image Source : https://www.petersons.com/blog/environmental-jobs-green-jobs-in-sustainable-development/
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