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पाठ्यपुस्तकों में पर्यावरण को समझाने वाली सभी परिभाषायें आधुनिक हैं। जब उद्योगों ने धरती, आकाश और पाताल कुछ भी नहीं छोडा तब हम एनवायरन्मेंट की बातें वैशविक सम्मेलनों में इकट्ठा हो कर करने लगे। भारत भी वर्ष 1986 के पश्चात से पर्यावरण सजग माना जाता है जबकि उसकी प्राचीन पुस्तकें यह मान्य करती हैं कि संपूर्ण सृष्टि पंचतत्त्वों अर्थात अग्नि , जल, पृथ्वी , वायु और आकाश से विनिर्मित हैं। पर्यावरण की सभी तरह की विवेचनायें क्या यहाँ पूर्णविराम नहीं पा जाती हैं? इन पंचतत्वों के संतुलन से हमारी प्रकृति और परिवेश निर्मित हैं और सुरक्षित भी, किसी भी एक तत्व का असंतुलन जैविक-अजैविक जगत को परिवर्तित अथवा नष्ट करने की क्षमता रखता है। आधुनिक परिभाषा कहती है कि पर्यावरण वह जो हमें चारों ओर से घेरे हुए है, ठीक यही हमारे शास्त्र कहते हैं कि परित: आवरणम (चारों ओर व्याप्त आवरण)। आधुनिक परिभाषा कहती है – पर्यावरण उन सभी भौतिक, रासायनिक एवं जैविक कारकों की समष्टिगत इकाई है जो किसी जीवधारी अथवा पारितंत्रीय आबादी को प्रभावित करते हैं तथा उनके रूप, जीवन और जीविता को तय करते हैं। यजुर्वेद में धरती, आकाश, पाताल, जल, वायु, औषधि आदि सभी के लिये शांति की कामना है – ओम द्यौ: शांति:, अंतरिक्ष ढं शांति:, पृथ्वी शांतिराप: शांतिरोषधय: शांति:। वनस्पतय: शांतिविश्वेदेवा शांति, ब्रम्ह शांति सर्व ढं शांति:, शांतिरेव शांति सामा शांतिरेधि:।

 

मैकाले प्रणाली की पुस्तकें बताती हैं कि पर्यावरण शिक्षा की जड़ें अठ्ठारहवीं सदी में तलाशी जा सकती हैं। जीन-जैक्स रूसो ने ऐसी शिक्षा के महत्व पर जोर दिया था जो पर्यावरण के महत्व पर केन्द्रित हों। इसके दशकों बाद, लुईस अगसिज़ जो एक स्विस में जन्मे प्रकृतिवादी थे, उन्होंने भी छात्रों को “किताबों का नहीं, प्रकृति का अध्ययन” करने के लिए प्रेरित किया और रूसो के दर्शन का समर्थन किया। इन दोनों प्रभावशील विद्वानों ने एक सुदृढ़ पर्यावरण शिक्षा कार्यक्रम की नींव डालने में सहायता की जिसे आज प्रकृति अध्ययन के नाम से जाना जाता है। अर्थात पश्चिम ने अट्ठारहवी सदी में पर्यावरण की आरम्भिक समझ विकसित की और बीसवी सदी तक आते आते इसे स्वरूप प्राप्त हुआ।  पर्यावरण तो भारतीय जीवन-दर्शन का अभिन्न हिस्सा रहा है। प्राचीन सभी प्रकार के शोध वस्तुत: ऋषियों की प्रकृति के प्रति समझ के विकास के साथ सामने आये हैं।

 

प्राचीन ग्रंथों में पर्यावरण के उल्लेखों को देख कर आश्चर्यमिश्रित हर्ष होता है कि हम आधुनिक सभ्यताओं की समझ से कई हजार साल पहले के लोग हैं। एक मोटे वर्गीकरण के आधार पर ऋग्वेद में अग्नि के रूप, रूपांतर और उसके गुणों की स्पष्ट व्याख्या की गई है। इसी तरह यजुर्वेद में वायु के गुणों, कार्य और उसके विभिन्न रूपों का आख्यान प्रमुखता से मिलता है। अथर्ववेद बहुत स्पष्टता से पृथ्वीतत्व का वर्णन प्राप्त हो जाता है। इसके पृथ्वी सूक्त में धरती की महानता उदारता और सर्वव्यापकता पर टिप्पणी करते हुए कहा गया है कि आपके लिए ईश्वर ने शीत वर्षा तथा वसंत ऋतुएँ बनाई हैं। दिन-रात के चक्र स्थापित किए हैं, इस कृपा के लिए हम आभारी हैं। मैं भूमि के जिस स्थान पर खनन करूं, वहाँ शीघ्र ही हरियाली छा जाए। सामवेद कहता है कि हे इंद्र तुम सूर्य रश्मियों और वायु से हमारे लिए औषधि की उत्पत्ति करो। छाँदोग्य उपनिषद् स्पष्ट करता है कि पृथ्वी जल और पुरुष सभी प्रकृति के घटक हैं। पृथ्वी का रस जल है, जल का रस औषध है, औषधियों का पुरुष रस है, पुरुष का रस वाणी, वाणी का ऋचा, ऋचा का साम और साम का रस उद्गीथ हैं, अर्थात् पृथ्वीतत्व में ही सब तत्वों को प्राणवान बनाने के प्रमुख कारण है। न्यायदर्शन में ईश्वर एवं जीव के साथ प्रकृति भी महत्वपूर्ण घटक है। वैशेषिक दर्शन भी पंचमहाभूत तत्वों को सृष्टि निर्माण के मुख्य तत्त्व मानता हैं। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में अभयारण्यों का वर्णन एवं उनका वर्गीकरण है। सम्राट अशोक के शासनकाल में वन्य जीवों के संरक्षण के लिये विविध नियम प्रतिपादित किये गये थे। रेखांकित कीजिये कि यह सब उन आधुनिक सभ्यताओं के आगमन से बहुत पहले के विवरण हैं जिनका लिखा भारतीय पाठ्यपुस्तकों के लिये पत्थर की लकीर बन गया है।

 

प्राचीन शास्त्रों में पर्यावरण के विभिन्न आयामों को कितनी खूबसूरती से विवेचित किया गया है इसके कुछ उदाहरण लेते हैं। हम प्रकृति के साथ माता-पुत्र का सम्बंध मानते थे – माता भूमि: पुत्रोअहं पृथिव्या: (अथर्ववेद)। मत्स्यपुराण में अधिक स्पष्ट उल्लेख है कि दस कुओं के बराबर एक बावड़ी होती है, दस बावड़ियों के बराबर एक तालाब, दस तालाबों के बराबर एक पुत्र है और दस पुत्रों के बराबर एक वृक्ष होता है – दशकूपसमा वापी दशवापीसमो ह्रदः। दशह्रदसमः पुत्रः दशपुत्र समो द्रुमः। वृक्षों के प्रति हमारी पुरातन समझ कहती है – वृक्ष जल है, जल अन्न है, अन्न जीवन है – ‘वृक्षाद् वर्षति पर्जन्य: पर्जन्यादन्न सम्भव:। वृक्ष और वनस्पति हमें सुख और स्वास्थ्य प्रदान करते रहें – शं न ओषधीर्वनिनो भवंतु (ऋग्वेद)। मनुस्मृति में उल्लेख है कि रात्रि में किसी वृक्ष के नीचे नहीं जाना चाहिये, आज इस तथ्य के पीछे हम कारबनडाईऑक्साईड के उत्सर्जन को कारक और सत्य मानते हैं – रात्रौ च वृक्षमूलानि दूरत: परिवर्जयेत। प्राचीन शास्त्र जल प्रदूषण को पारिभाषित भी करते हैं। ध्यान रहे कि वह समय औद्योगीकरण का नहीं था अर्थात वृहद प्रदूषण जैसी समस्यायें सामने नहीं थीं तब भी हम जल, वायु और मृदा को क्यों और कैसे शुद्ध करें यह जानते समझते थे। जल का महिमामण्डन करते हुए ऋग्वेद कहता है कि जल सभी औषधियों वाला है – आपश्च विश्वभेषजी। शतपथ ब्राम्हण में उल्लेख है कि जल ही जगत की प्रतिष्ठा है – आपो वा सर्वस्य जगत प्रतिष्ठा। मनुस्मृति स्पष्ट करती है कि उन समयों में प्रदूषित जल को निर्मली के फल से शुद्ध किया जाता था। इससे मिट्टी और दूषित कण नीचे बैठ जाते थे। जल को मोटे वस्त्र से छान कर पिया जाता था – फलं केतरूवृक्षस्य यद्यप्यम्बु प्रसादकम। न नामग्रहणादेवतस्य वारि प्रसीदति ।

 

जल के विभिन्न स्त्रोंतो पर भी प्राचीन शास्त्रों का ध्यान गया है। ऋग्वेद में उल्लेख है कि शन्नो अहिर्बुधन्य: शं समुद्र: अर्थात समुद्र के गहरे तलीय जल भी हमारे लिये सुख के प्रदाता हों। अथर्ववेद में उल्लेखित है कि मरुस्थल से मिलने वाला, अनूप प्राप्त होने वाला, कुंवे से प्राप्त होने वाला और संग्रहित किया हुआ जल स्वास्थ्यवर्थक और शुद्ध हो – शन आपो धन्वन्या शमुसंत्वनूपया शन: खनित्रिमा आप शमु या कुम्भ आभृता। वराहमिहिर रचित बृहत्संहिता में एक उदकार्गल (जल की रुकावट) नामक अध्याय है जिसके अंतर्गत भूगर्भस्थ जल की विभिन्न स्थितियाँ और उनके ज्ञान संबंधी संक्षेप में विवरण प्रस्तुत किया गया है। इसी प्रकार ऋग्वेद में कई स्थानों पर वायु और उसकी शुद्धि की कामना व उल्लेख है। वायु से दीर्घजीवन की प्रार्थना करते हुए उसे हृदय के लिये परम औषधि, कल्याणकारी और आनंददायक कहा गया है – वात आ वातु भेषजं शंभु मयोन्यु नोहृदे। प्रण आयूंषि तारिषत। उल्लेख है कि अंतरिक्ष धूल, धुँवे आदि से मुक्त रहे जिससे कि स्पष्ट देखा जा सके – शमंतरिक्ष दुश्येनो अस्तु। अंतरिक्ष में कल्याणकारी वायु चलती रहे – शनो भवित्र शमु अस्तु वायु। वायु एक स्थान पर बद्ध न हो कर दूषि पर अर्थात स्वच्छ रूप से दायें बायें प्रवाहित होती रहे – शं न दूषिपरो अभिवातु वात। प्राचीन शास्त्र भूमि के जल प्रदूषण से सम्बंध को भी स्थापित करते हैं। तैत्तरीय आरण्यक स्पष्ट करता है कि शौच क्रिया जल, अग्नि, उद्यान में, वृक्ष के नीचे, शस्ययुक्त क्षेत्र, बस्ती तथा देवस्थान के पास नहीं करना चाहिये – नाप्सु मूत्रपुरीषं कुर्यात न निष्ठीवेत न विवसन: स्नायात गुह्यतो वा इवोग्नि:।

 

प्राचीन ज्ञान आपको पर्यावरण के प्रति समझ विकसित करने का व्यापक आयाम प्रदान करता है। इन शास्त्रों से उद्धरित ज्ञान ही जाने अनजाने हमारी परम्परा बन गया। हिन्दू धर्मशास्त्रों में वर्णित अनेक विधान विभिन्न तरह की वृक्ष पूजाओं को प्रोत्साहित करते हैं। तमिल रामायण के अनुसार यदि कोई मनुष्य अपने जीवन काल में दस आम के वृक्ष लगा लेता है तो वह निश्चित रूप से स्वर्ग का भागी बनता है। बिल्वपत्र के वृक्ष को अमावस के दिन प्रातः जल चढ़ाकर धूप-दीपकर उसकी जड़ों में 50 ग्राम के लगभग शुद्ध गुड़ का चूरा रखने से अनेक रोगों से मुक्ति मिलती है। बारीकी से देखा जाये तो बिल्वपत्र के वृक्ष तो संरक्षण हुआ ही आस पास रहने वाली चींटियों और अन्य कीट पतंगों की भी दावत हो गयी। संरक्षण को धर्म के साथ जोडने के फलस्वरूप पीपल-बट-आम-नीम आदि के कई वृक्ष समाज की बाध्यता स्वरूप सुरक्षित रह गये हैं। बहुत से जीव-जंतु देवी-देवताओं के साथ सम्बद्ध हैं और उन्हीं के साथ पूजे जाते हैं। शेर, हंस, मोर और यहां तक कि उल्लू और चूहे भी तुरन्त दिमाग में आ जाते हैं जो कि देवी दुर्गा और उनके परिवार से संबंधित माने जाते हैं जिनकी दुर्गा पूजा के दौरान पूजा होती है। परम्परावादी लोग कभी भी तुलसी (ऑसिमम सैंक्टम) या पीपल (फाइकस बंगालेन्सिस) के पौधे को नहीं उखाड़ते, चाहे वह कहीं भी उगा हुआ हो। प्रायः परम्परागत धार्मिक क्रियाओं या व्रत के दौरान कोई न कोई वनस्पति प्रजाति महत्वपूर्ण मानी जाती है। ये तो कतिपय उदाहरण भर हैं हम पर्यावरण संरक्षण की मौलिक अवधारणा रखते हैं। कबीर परम्परावादी नहीं थे लेकिन वे भी जब व्यंग्य का सहारा लेते थे तब भी प्रकृति और पर्यावरण ही उनके बिम्ब बने। यह उदाहरण देखें कि निर्जीव प्रतिमा के लिये पेडों की पत्ती तोडने का क्या औचित्य वस्तुतः पत्ती-पत्ती में शिव का वास होता है – भूली मालिन पाती तोडे, पाती पाती सीव। जो मूरति को पाती तोडे, सो मूरति नरजीव।

 

राजीव रंजन प्रसाद

वरिष्ठ प्रबंधक (पर्यावरण)