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पृष्ठभूमि :

आर्थिक एवं औद्योगिक विकास की प्रक्रिया के फलस्वरूप विभिन्न प्रकार की पर्यावरण संबंधी समस्याएँ भी उठ खड़ी होती है जो कि वर्तमान में मानवीय जीवन के साथ-साथ समस्त पर्यावरण के लिये भी खतरा बनती जा रही है। पर्यावरणीय समस्याओं का एक जरूरी पहलू यह भी है कि उनका प्रभाव केवल स्रोत के क्षेत्र तक ही सीमित नहीं रहता बल्कि इसका प्रभाव दूर-दूर तक के क्षेत्रों तक फैल जाता है। पर्यावरण के दुरुपयोग और अतिक्रमण से बचाव के लिये प्रशासनिक, वैज्ञानिक एवं तकनीकी उपायों के साथ समय-समय पर प्रभावशाली कानूनों की आवश्यकता भी महसूस की जाती रही है। अतः इस प्रकार की समस्याओं के निवारण के लिये पर्यावरण संबंधी कानून न केवल राष्ट्रीय स्तर पर, बल्कि अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर भी जरूरी है।

इस क्रम में वर्ष 1992 में रियो में हुए यूनाइटेड नेशंस कॉन्फ्रेंस ऑन एन्वॉयरनमेंट एण्ड डेवलपमेन्ट में अन्तरराष्ट्रीय सहमति बनने के बाद से ही भारत में भी एक ऐसे संवैधानिक संस्था व कानून के निर्माण की जरुरत महसूस की जाने लगी थी। इस बात की भी आवश्यकता अनुभव की जाने लगी कि देश में एक ऐसा कानून हो जिसके दायरे में देश में लागू पर्यावरण, जल, जंगल, वायु और जैवविवधता के सभी नियम-कानून आ सके । इसी उद्देश्य से भारत के संविधान में 1976 में संशोधनों के द्वारा दो महत्त्वपूर्ण अनुच्छेद 48 (ए) तथा 51 (ए) जोड़े गए। अनुच्छेद 48 (ए) राज्य सरकार को निर्देश देता है कि वह पर्यावरण की सुरक्षा और सुधार सुनिश्चित करने के साथ-साथ  देश के वनों और वन-जीवों की रक्षा करे। अनुच्छेद 51 (ए) बताता है कि नागरिकों का कर्तव्य है कि वह पर्यावरण की रक्षा करें, इसका संवर्धन करें तथा सभी जीवधारियों के प्रति दया का भाव रखें।

पर्यावरण संबंधी कानून की व्यापक आवश्यक्ता को ध्यान में रखते हुए केंद्र सरकार द्वारा पारित “राष्ट्रीय हरित अधिकरण अधिनियम 2010” के तहत दिनांक 18 अक्टूबर, 2010 को राष्ट्रीय हरित अधिकरण (एनजीटी) की स्थापना की गई।

 

 राष्ट्रीय हरित अधिकरण एवं संरचना:

राष्ट्रीय हरित अधिकरण एक संवैधानिक संस्था है। इसके दायरे में देश में लागू पर्यावरण, जल, जंगल, वायु और जैवविवधता के सभी नियम-कानून आते हैं। उपरोक्त अधिनियम का उद्देश्य, पर्यावरण संरक्षण, वनों के संरक्षण से संबंधित मामलों के प्रभावी और तेज़ी से निपटान के लिए एक विशेष मंच प्रदान करना है। राष्ट्रीय हरित अधिकरण अधिनियम 2010, व्यक्ति या संस्था द्वारा पर्यावरण कानूनों या निर्दिष्ट शर्तों के उल्लंघन के कारण होने वाले नुकसान के लिए मुआवजे की मांग के लिए अनुमतियां  प्रदान करता है ।

राष्ट्रीय ग्रीन ट्रिब्यूनल अधिनियम 2010 के फलस्वरूप एनजीटी का प्रिंसिपल बेंच राष्ट्रीय राजधानी – नई दिल्ली में स्थापित किया गया है, तथा पुणे (पश्चिमी क्षेत्र बेंच), भोपाल (केंद्रीय क्षेत्र बेंच), चेन्नई (दक्षिणी बेंच) और कोलकाता (पूर्वी बेंच) में इसके क्षेत्रीय जोन स्थापित किए गए हैं ।  प्रत्येक बेंच एक निर्दिष्ट भौगोलिक क्षेत्राधिकार में कार्य करता है जिसमें कई राज्य शामिल हैं। एनजीटी के सर्किट बेंच के लिए एक तंत्र भी है। उदाहरण के लिए, चेन्नई में स्थित दक्षिणी जोन बेंच, बैंगलोर या हैदराबाद जैसे अन्य स्थानों में बैठने का फैसला कर सकता है।

एनजीटी के अध्यक्ष सुप्रीम कोर्ट के एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश होते हैं तथा इसका मुख्यालय दिल्ली में अवस्थित है । वर्तमान में न्यायमूर्ति श्री आदर्श गोयल एनजीटी के अध्यक्ष हैं। एनजीटी के अन्य न्यायिक सदस्य उच्च न्यायालयों के सेवानिवृत्त न्यायाधीश हैं। एनजीटी के प्रत्येक खंड में कम से कम एक न्यायिक सदस्य और एक विशेषज्ञ सदस्य शामिल होते हैं। विशेषज्ञ सदस्यों के पास पर्यावरण / वन संरक्षण और संबंधित विषयों के क्षेत्र में पेशेवर योग्यता और कम से कम 15 वर्ष का अनुभव होना आवश्यक है ।

 

राष्ट्रीय हरित अधिकरण को प्रदत्त शक्तियाँ :

एनजीटी के पास एनजीटी अधिनियम की अनुसूची-1 में सूचीबद्ध कानूनों के कार्यान्वयन से जुड़े पर्यावरणीय मुद्दों और प्रश्नों से संबंधित सभी नागरिक मामलों पर सुनवाई की शक्ति है। इनमें निम्नलिखित अधिनियम शामिल हैं:

  1. जल (रोकथाम और प्रदूषण नियंत्रण) अधिनियम, 1974;
  2. जल (रोकथाम और प्रदूषण नियंत्रण) सेस अधिनियम, 1977;
  3. वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980;
  4. वायु (रोकथाम और प्रदूषण नियंत्रण) अधिनियम, 1981;
  5. पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986;
  6. लोक देयता बीमा अधिनियम, 1991;
  7. जैविक विविधता अधिनियम, 2002 ।

उपरोक्त कानूनों से संबंधित किसी के भी उल्लंघन, या इन कानूनों के तहत सरकार द्वारा उठाए गए किसी भी आदेश / निर्णय को एनजीटी के समक्ष चुनौती दी जा सकती है। यहाँ यह बताना  महत्वपूर्ण है कि वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972, भारतीय वन अधिनियम, 1927 और वनों, वृक्ष संरक्षण आदि से संबंधित राज्यों द्वारा अधिनियमित विभिन्न कानूनों से संबंधित किसी भी मामले की सुनवाई के लिए एनजीटी को शक्तियों प्रदत्त नहीं है। अतः इन कानूनों से संबंधित मुद्दों को एनजीटी के  समक्ष नहीं उठाया जा सकता है। इसके लिए एक राज्य याचिका (पीआईएल) के माध्यम से राज्य उच्च न्यायालय या सुप्रीम कोर्ट से संपर्क करना होगा या तालुक/ जिला के उचित सिविल न्यायाधीश के समक्ष एक मूल सूट दाखिल करना होगा।

 

राष्ट्रीय हरित अधिकरण में आवेदन दर्ज करने की प्रक्रिया :

एनजीटी में आवेदन डालने का तरीका बहुत ही सरल है। एनजीटी में पर्यावरण की क्षति के लिए मुआवजे की मांग करने/ सरकार के आदेश या निर्णय के खिलाफ अपील के लिए भी बहुत ही सरल प्रक्रिया का पालन होता है। क्षति-पूर्ति के मामलों में दावे की रकम की एक फीसदी राशि अदालत में जमा करनी होती है। पर जिन मामलों में क्षति-पूर्ति की बात नहीं होती है, उसमें मात्र एक हजार रु. की फीस ली जाती है। यह संस्था मानती है कि पर्यावरण को नुकसान पहुँचाने वाले ही इसकी भरपाई भी करें। यदि कानून की सही जानकारी हो तो एनजीटी में कोई भी अपना मुकदमा स्वयं भी लड़ सकता है। एनजीटी की आधिकारिक भाषा अंग्रेजी है।

 

राष्ट्रीय हरित अधिकरण द्वारा अपनाए गए न्याय के सिद्धांत :

एनजीटी नागरिक प्रक्रिया संहिता, 1908 के तहत निर्धारित प्रक्रिया से बंधी नहीं है। इसके अलावा, एनजीटी भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 में स्थापित साक्ष्य के नियमों से भी बंधा नहीं है, लेकिन यह  प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों द्वारा निर्देशित है । इस प्रकार, अन्य अदालत के विपरीत एनजीटी के समक्ष किसी परियोजना में तकनीकी त्रुटियों को इंगित करना, या ऐसे विकल्पों का प्रस्ताव करना जो पर्यावरण क्षति को कम कर सकते हैं लेकिन जिन पर विचार नहीं किया गया है जैसे तथ्यों और मुद्दों को पेश करना अपेक्षाकृत आसान है। उल्लेखनीय है कि अपना निर्णय पारित करते समय, एनजीटी समान्यतः सतत विकास के सिद्धांतों का अनुपालन करती है।

 

 राष्ट्रीय हरित अधिकरण द्वारा समीक्षा और अपील :

आदेश और निर्णय देते समय एनजीटी टिकाऊ विकास की ओर ध्यान देता है तथा पर्यावरण से जुड़ी सावधानियाँ बरतने की कोशिश करता है। एनजीटी के नियम के तहत, एनजीटी के निर्णय या आदेश की समीक्षा करने के लिए भी प्रावधान है। यदि यह प्रक्रिया विफल रहती है, तो एनजीटी आदेश को सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष निश्चित अवधि के भीतर चुनौती दी जा सकती है।

 

उपसंहार :

पर्यावरण के संरक्षण व प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग को नियंत्रित करने में पर्यावरण संबन्धित कानूनों की बहुत ही महत्त्वपूर्ण भूमिका है। पर्यावरण-संबंधी कानूनों की सफलता मुख्य रूप से इस बात पर निर्भर करती है कि उसका अनुपालन किस प्रकार से होता है। पर्यावरण कानून एवं स्वस्थ पर्यावरण को कायम रखने के लिये संबन्धित संस्थाओं के साथ-साथ आम जनता की भागीदारी भी आवश्यक है। राष्ट्रीय व अन्तरराष्ट्रीय स्तरों पर पर्यावरण संबन्धित अनगिनत कानून मौजूद हैं परंतु पर्यावरण से संबन्धित चुनौतियाँ भी कम नहीं है। अतः पर्यावरण संबंधी कानूनों के अनुपालन सुनिश्चित कराने तथा इसके उलंघन को रोकने में राष्ट्रीय हरित अधिकरण की महती भूमिका है।

 

 

           कुमार मनोरंजन सिंह

              वरिष्ठ प्रबन्धक (पर्यावरण)